Along the Lesser-Known Ganga Below Haridwar

फर्रुखाबाद में पहरान समारोह में, माँ गंगा को एक-दूसरे के साथ सिली हुई साड़ियों का चढ़ावा एक-किनारे से दूसरे किनारे तक पहनाकर चढ़ाया जाता है। इस समारोह में एक पुजारी, प्रायोजक, कुछ नावें और नाविक, एक बैंड और बहुत से उत्सव मनाने वाले परिवार के सदस्य छोटी नावों में जोख़िम लेकर बैठे रहते हैं

आइये फोटोग्राफ़र और पत्रकार देव राज अग्रवाल के साथ गंगा नदी की यात्रा पर चलें जो हरिद्वार से वाराणसी तक, रास्ते भर मन्दिरों, नदी के घाटों, धार्मिक मेलों और स्थानीय इतिहास को दस्तावेज़ीकृत करते हैं। नदी के किनारे साधारण हिन्दुओं के दैनिक पूजा-पाठ से विशेष कर्मकाण्डों – बच्चों के पहले मुण्डन से लेकर शादी के आशीर्वाद, अंतिम संस्कार और पूर्वजों को पिण्डदान तक का हिस्सा बनें।
देव राज अग्रवाल, देहरादून
मेरे बचपन में मेरी माँ मुझे बहुत बार हरिद्वार में पौड़ी घाट पर माँ गंगा में डुबकी लगवाने ले जाती थी, जो मेरे घर से बस ३० मील दूर था। बाद में अपने जीवन में, मैं कई बार बनारस गया लेकिन प्रयाग को छोड़कर, हरिद्वार और वाराणसी के बीच का सबकुछ मेरे लिये बस नक्शे पर लिखे हुए नाम थे – जब तक कि मैंने हिन्दुइज़्म टुडे के सामने यह प्रस्ताव नहीं रखा कि हम पवित्र माँ गंगा के ६०० मील का समन्वेषण करते हैं। और इस प्रस्ताव का परिणाम २० फ़रवरी, २०२१ को शुरु होने वाली एक सप्ताह की आकर्षक यात्रा थी।
Google Earth view of the upper part of the Ganga basin, showing places covered in this article and the night halts

गंगा बेसिन के ऊपरी भाग का गूगल अर्थ व्यू, इस लेख में शामिल स्थानों और रात्रि में रुकने की जगहों को दिखा रहा है

भारत के लगभग आधे लोग गंगा की बेसिन में रहते हैं। ४,२०,००० वर्ग मील का है और भारत के भूभाग के एक-चौथाई से अधिक है। यह राष्ट्र की जीडीपी का ४०% प्रदान करती है और १,७०,००० वर्ग मील की कृषि भूमि रखती है जिसका आधा हिस्सा गंगा और सहायक नदियों द्वारा सिंचित है।

पहला दिन : हरिद्वार से शुक्रताल

पुराने दिनों में शायद यह विशाल यात्रा पैदल ही शुरु होती। आज, यह नदी के किनारे छोटे गाँवों और खेतों से गुज़रते हुए संकरे, धूल भरे रास्तों पर एक चार घंटों की गाड़ी की सवारी है। अन्त में, हम हरिद्वार से नीचे पहले महत्वपूर्ण तीर्थस्थल पर पहुँचते हैं: प्राचीन नगर शुक्रताल (जिसे हाल ही में शुक्रतीर्थ नाम दिया गया)। दिल्ली-हरिद्वारा राजमार्ग पर एक छोटे टीले पर बसा हुआ यह छोटा कस्बा जहाँ बहुत से मन्दिर और आश्रम हैं, तीर्थयात्रियों और पर्यटकों की पसन्दीदा जगह है। यहाँ नदी के घाट छोटे और ख़ूबसूरत हैं। तकनीकी रूप से, घाट एक छोटी सहायक नदी, बुधि गंगा पर हैं, गंगा यहाँ से थोड़ी पूरब की ओर है, लेकिन यहाँ जो भी आता है वह इन घाटों के प्रति समान श्रद्धा रखता है।

इस स्थान पर बहुत सी पौराणिक कथाओं और विश्वासों का जाल बना हुआ है। यह कहा जाता है कि अभिमन्यु के पुत्र, हस्तिनापुर के राजा परीक्षित ने यहाँ अपने जीवन के अन्तिम सात दिन एक बरगद के वृक्ष के नीचे शुकदेव मुनि से भागवत सुनते हुए बिताये थे। शुकदेव आश्रम की भूमि पर स्थित एक विशाल बरगद के वृक्ष को वही वृक्ष कहते हैं, जिसके नीचे आज भी इस क्षेत्र के प्रमुख सन्त चर्चा करते हैं। आश्रम की विशाल सम्पत्ति में बहुत से मन्दिर, जिसमें एक शुकदेव का मन्दिर है; तीर्थयात्रियों के लिए कमरे और एक बड़ी गोशाला शामिल है। 

Huge Hanuman statue at Hanuman Dham Ashram. Photo: Dev Raj Agarwal

हनुमान धाम आश्रम में विशाल हनुमान मूर्ति। फोटो: देव राज अग्रवाल

हनुमान धाम आश्रम के प्रांगण में हनुमान जी की एक ७७ फुट लम्बी मूर्ति है। शुकदेव आश्रम की तरह, हनुमान धाम में भी बहुत सी सुविधायें हैं (या तैयार की जा रही हैं), जैसे – पुस्तकालय, संस्कृत संस्थान, वृद्धाश्रम, निःशुल्क धर्मशालाएँ, निःशुल्क खाने की सुविधा आदि।

यहाँ मुझे स्वामी केशवानन्द सरस्वती से बात करने का अवसर मिलता है, जो बताते हैं कि इस स्थान का महाभारत की घटनाओं से मजबूत सम्बन्ध है। वह मुझे बताते हैं कि इस क्षेत्र कुछ मन्दिर १,००० वर्ष पुराने हैं। वह नदी की सफ़ाई के लिए सरकार के प्रयासों की सराहना करते हैं। “यदि यह कुछ लोगों का कर्तव्य न बनकर एक जन आन्दोलन बन जाये तो माँ गंगा को साफ़ करने का कठिन कार्य पूरा करना आसान हो जायेगा” वह कहते हैं। 

यहाँ के कुछ अन्य प्रमुख आश्रम गणेश धाम, श्री राम आश्रम, शिव धाम और दुर्गा धाम हैं। जिन यात्रियों का उद्देश्य सिर्फ़ गंगा स्नान करना है, उनके लिए शुक्रताल, हरिद्वार से बेहतर विकल्प है। यह हरिद्वार की भीड़ की हलचल की तुलना में ज़्यादा शान्त, स्वच्छ, सस्ता और ज़्यादा आरामदायक है।

Swami Omanand Maharaj, head of Shukdev Ashram. Photo: Dev Raj Agarwal

स्वामी ओमानंद महाराज, शुकदेव आश्रम के प्रमुख। फोटो: देव राज अग्रवाल

मुझे बिजनौर जिले में नदी के पार एक मन्दिर और एक आश्रम के बारे में बताया गया जो विदुर को समर्पित था, जो महाभारत के के केन्द्रीय पात्रों में से एक थे। वह कुरु राज्य के मुख्य मन्त्री थे और पाण्डवों के घनिष्ठ सहयोगी थे।

मैं विदुर कुटी में, जो कि इसे कहा जाता है, शाम को गया। इसे बिड़ला परिवार द्वारा बनवाया गया था और १९६० में खोला गया था। वहाँ पर, मेरी मुलाक़ात दाल चन्द से होती है, जो बिजनौर के नौगामा गाँव के एक साधारण ग्रामीण हैं, अपने सम्बन्धी की अस्थियाँ विसर्जित करने नदी के तट पर आये हैं।  “हमारे घर के पास में ही गंगा हैं,  तो हम धर्म-कर्म और स्नान के लिए कहीं और क्यों जायें?” वह मुझे बताते हैं कि पूर्णिमा और अमावस्या के दिन गंगा की रेती पर हज़ारों लोगों का मेला लगता है। मैं रात में रुकता हूँ और अगली सुबह नदी के दायीं तरफ़ एक पतले रास्ते से घने कुहरे के बीच वापस आ जाता हूँ।

Impromptu collection of Deities along the sandy banks of the Ganga near Vidura Kuti, where people immerse the ashes of their relatives. Photo: Dev Raj Agarwal

विदुर कुटी के पास गंगा के रेतीले तट पर देवी-देवताओं का संग्रह, जहाँ लोग अपने सम्बन्धियों की अस्थियाँ विसर्जित करते हैं। फ़ोटो : देवराज अग्रवाल

दूसरा दिन: शुक्रताल से हस्तिनापुर

गंगा के बगल में एक घाटी में स्थित हस्तिनापुर एक समय में कौरवों की राजधानी था। आज यह एक छोटा सा कस्बा है जिसकी आबादी मुश्किल से २०,००० है, लेकिन इसके मन्दिर और प्राचीन अवशेष एक समृद्ध सांस्कृतिक अतीत की गवाही देते हे। कस्बा महाभारत महाकाव्य की घटनाओं को प्रमुखता से दर्शाता है। यहाँ धृतराष्ट्र की पत्नी, गाँधारी के सौ पुत्रों ने जन्म लिया था। 

यहाँ का सबसे प्रमुख मन्दिर पण्डेश्वर महादेव मन्दिर है, जिसका बड़े पैमाने पर जीर्णोद्धार १७९८ में बहिशुमा किला, परीक्षितगढ़ के राजा नैन सिंह द्वारा करवाया गया था। यह ऊँची दीवारों से घिरा हुआ है और दीवारों के कोनों पर गुम्बदाकार मण्डप हैं, जिन्हें छतरी कहा जाता है। द्वार के सामने ही एक विशाल बरगद का वृक्ष है। गर्भगृह के पूजास्थल पर मौज़ूद शिवलिंग को महाकाव्य के युग का ही माना जाता है। गारे और ईंट से बनी मोटी दीवारों वाले पुराने किले के अवशेष पाण्डव टीला पर देखे जा सकते हैं, जो कि वृक्षों से ढँकी हुई एक छोटी पहाड़ी है जो मन्दिर के दायीं ओर स्थित है। यहाँ कुछ गुफाएँ भी दिखायी देती हैं, जो शायद सन्तों और मुनियों द्वारा ध्यान के लिए प्रयोग की जाती थीं।

१९४५ में, नज़दीकी स्थल की ख़ुदाई में पाँच चित्रों वाली एक प्रस्तर पट्टिका पायी गयी, जो समय के साथ क्षरित हो गयी थी। पण्डित जवाहर लाल नेहरु के सुझाव पर इसे मन्दिर में स्थापित कर दिया गया, जहाँ इसे शिवलिंग के पास दीवार पर देखा जा सकता है [नीचे दी गयी तस्वीर देखें] । मन्दिर के मुख्य पुजारी का कहना है कि पाँच चित्र पाण्डवों के हैं,  लेकिन निश्चित निर्धारण असम्भव है।

कर्ण मन्दिर के स्वामी शंकर देव हमें बताते हैं कि सरकार के आधिकारिक राजस्व रिकॉर्ड में, क्षेत्रीय मन्दिर को अभी भी कौरवन, “कौरवों का क्षेत्र,” कहा जाता है और शहर के दूसरे भाग को पाण्डवन —“पाण्डवों का क्षेत्र” कहा जाता है। जैसा कि महाभारत में बताया गया है, दुर्योधन के वध के बाद नगर को पूरी तरह से नष्ट कर दिया गया था। 

Sivalingam of the Pandeshwar Mahadev Temple, with panel behind it thought to depict the Pandavas. Photo: Dev Raj Agarwal
Swami Mangalanand Giri, the temple’s young head, in front of an ancient banyan tree in the temple’s courtyard. Photo: Dev Raj Agarwal

पण्डेश्वर महादेव मन्दिर का शिवलिंग, जिसके पीछे के प्रस्तर को माना जाता है कि यह पाण्डवों को चित्रित करता है। फ़ोटो : देव राज अग्रवाल

स्वामी मंगलानन्द गिरि, मन्दिर के युवा प्रमुख, मन्दिर के प्रांगण में एक प्राचीन बरगद के वृक्ष के सामने। फ़ोटो: देव राज आनन्द

इस क्षेत्र से निकलने पर, हमारी सड़क गन्नों से लदे हुए ट्रेलर खींचने वाले ट्रैक्टरों की वजह से पूरी तरह जाम हो गयी है। लेकिन उबलते हुए गन्नों से निकलने वाली महक ने हर असुविधा की भरपाई कर दी है। गेहूँ और चावल के साथ, गन्ना गंगा के मैदान के इस उपजाऊ और समृद्ध क्षेत्र की मुख्य फसल है। दिन का बहुत सा समय छोटी सड़कों पर बीत गया है, जहाँ रेस्टराँ, पेट्रोल स्टेशन और आराम की जगहें नहीं हैं। यहाँ शहर, कस्बे और मुख्य रास्तों को नदी से सुरक्षित दूरी पर बनाया गया है, जो एक ही मौसम में आसानी से अप्रत्याशित तौर पर करवट बदल सकती है।

अन्त में, हम गढ़मुक्तेश्वर पहुँचते हैं, जो कि हरिद्वार के बाद नदी के पास वास्तविक पहला शहर है। एक समय में हस्तिनापुर के राज्य का हिस्सा रहे गढ़ (जैसा कि इसे लोकप्रिय भाषा में कहते हैं) में बहुत से अच्छे होटल, पेट्रोल स्टेशन और सुविधाएँ हैं। यहाँ से गुजरने वाले प्रमुख पूर्वी-पश्चिमी और उत्तर-दक्षिणी हाइवे से हरियाणा, दिल्ली (जो बस ७० मील दूर है), राजस्थान और आसपास के स्थानों से हजारों श्रद्धालु आते हैं। वर्ष का सर्वोच्च समय नवम्बर में कार्तिक पूर्णिमा को लगने वाला स्नान मेला होता है, लेकिन कोविड-१९ के कारण यह २०२० में रद्द हो गया था। साधारण तौर पर, मेले में दिल्लीवासियों को शानो-शौकत और चमक-दमक का प्रदर्शन होता है, जिसमें वातानुकूलित टेन्ट और सभी आधुनिक सुविधाएँ शामिल होती हैं।

शाम को, मैं बृजघाट जाता हूँ जो मुख्य गढ़ से तीन मील की दूरी पर है। बग़ल में बहुत से मन्दिर और घाट हैं – बिल्कुल वाराणसी की तरह, लेकिन बहुत छोटे पैमाने पर। बृजघाट पर, हरिद्वार की तरह अपने पूर्वजों को पिण्डदान करने का विशेष महत्व है। घाट की दीवारों को गंगा को स्वच्छ रखने के नारों से पेन्ट किया गया है, जो कि मुझे सरकार का एक सफ़ल मिशन प्रतीत होती है। देर शाम को, नौका विहार के बाद, मैं वेदान्त मन्दिर गया, जो कि नदी के पास के बहुत से आश्रमों और मन्दिरों में से एक है। फ़िर में रात बिताने के लिए गढ़ वापस आ गया।

तीसरा दिन: गढ़ से कासगंज

इस सुबह मैं नक्का कुआँ में, जो कि गढ़ में स्थित एक कॉम्प्लेक्स है, मुक्तेश्वर महादेव के भव्य मन्दिर के लिये निकलता हूँ। इमारत पर एक उर्दू का उत्कीर्णन बताता है कि इसे वर्ष १८३६ में पेशावर के राजा किशन चन्द द्वारा बनाया गया था। इसके अन्दर एक शिवलिंग और उसके साथ महिषासुरमर्दिनी, जो कि देवी दुर्गा का एक रूप है, साथ ही भैरव, जो कि शिव का एक रूप है, की मूर्ति प्रतिष्ठित है। गंगा स्नान मेला के दौरान यहाँ बड़ी संख्या में तीर्थयात्री आते हैं।

stacks of mats just below the Ganga temple are from the local weaving industry. Photo: Dev Raj Agarwal

गंगा नदी के ठीक नीचे चटाइयों के ढेर यहाँ की स्थानीय बुनाई उद्योग के हैं। फ़ोटो: देव राज अग्रवाल

दुर्भाग्य से,नक्का कुआँ क्षेत्र के केवल कुछ मन्दिर अच्छी स्थिति में हैं। भारत में, केवल सबसे महत्वपूर्ण प्राचीन मन्दिर ही भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) के अन्तर्गत आते हैं; आमतौर पर इनका ठीक से रखरखाव किया जाता है। शेष के, किसी विशेष राज्य के प्रायः बहुत ज़्यादा बोझ से लदे या कम वित्त पोषित पुरातत्व सर्वेक्षण या मन्दिर प्रबन्धन खण्ड के तहत, कम  रखरखाव किया जाता है। उदाहरण के लिए, तमिलनाडु राज्य हिन्दू धार्मिक और धर्मार्थ अक्षयनिधि विभाग ३६,४२५ मन्दिरों और ५६ मठों के लिए उत्तरदायी है!

नक्का कुआँ से कुछ गज दूरी पर छोटा टीला है, जो इस क्षेत्र का एकमात्र ऊँचा क्षेत्र है। शीर्ष पर, गंगा के मैदान को देखता हुआ, गंगा मन्दिर है, जिसमें देवी की एक भव्य मूर्ति तथा अन्य देवी-देवताओं की मूर्तियाँ स्थापित है। इस तक ८४ सीढ़ियों की चढ़ाई से पहुँचते हैं। ऐसा कहा जाता है कि मन्दिर में मूलतः सीढ़ियों की संख्या १०४ थी, जो गंगा तक जाती थी, जो पहले बहुत क़रीब से ही बहती थी लेकिन अब वो तीन मील दूरी पर है। मुझे सन्देह है कि यह कभी इस क्षेत्र से गुज़री थी।

सीढ़ियों की तली में, मुझे मन्दिर के एक श्रद्धालु मिलते हैं जिनका नाम पदम है, वह अपनी तिपहिया साइकिल पर मिट्टी के बर्तन बेचते हैं। वह यहाँ अपनी दिनचर्या के अनुसार पूजा करने के लिये रुके हैं। “यह मन्दिर एक दैवीय विस्मय है, जो एक जीवित देवी का मन्दिर है। मैं जो कुछ भी हूँ, गंगा माँ की वजह से हूँ,” वह पूरे विश्वास से कहते हैं और उनकी श्रद्धा मुझे प्रभावित करती है।

टीले पर गंगा मन्दिर के बगल में, राम दरबार मन्दिर है जिसमें भगवान  राम की काले रंग की मूर्ति है, अब यह हाल ही के निर्माण की वजह से छिप गया है। यह मन्दिर अभी बहुत ख़राब अवस्था में पहुँच गया है लेकिन निश्चित तौर पर यह कभी बहुत सुन्दर था।

A merchant stops to worship at the 84-step entrance to the Ganga temple. Photo: Dev Raj Agarwal

टीले के नीचे उन परिवारों की एक बड़ी बस्ती है जो नदी के किनारे उगने वाली लम्बे बाँस से चटाइयाँ बनाती है। उनकी कई तरह की बुनाई की गतिविधियाँ मेरे फ़ोटोग्राफ़र की आँखों को भा गयीं। एक स्थानीय बुनने वाले ने, जिसका नाम विजय था, मुझे बताया कि इस पड़ोस में लगभग सौ बुनने वाले परिवार हैं और यहाँ पीढ़ियों से बुनाई की जाती है। वे उसी बाँस से चटाईयाँ, बैठने के स्टूल और अन्य छोटे सामान बनाते हैं। स्थानीय अधिकारी गंगा स्नान मेले के दौरान प्लास्टिक की ग्राउंड शीट की जगह प्रयोग करने के लिए यूएस $०.५० की दर से बड़ी संख्या में चटाइयों को खरीद लेते हैं।

एक व्यापारी गंगा मन्दिर की चौरासी सीढ़ियों के प्रवेश द्वार पर पूजा के लिए रुका है। फ़ोटो: देव राज अग्रवाल

“दलदल ख़त्म हो रहे हैं, ज़्यादा से ज़्यादा ज़मीन खेती में बदल रही है,” विजय मुझसे कहते हैं। “अब हम बिजनौर जैसी दूर जगह पर जाकर बाँस लाने के लिए मजबूर हैं।”  

बुनाई करने वालों को छोड़कर, मैं कुछ मील नीचे औपशहर की ओर जाता हूँ, जो कि एक कठिन, गड्ढे वाली सड़क पर तीन घंटे लम्बी यात्रा थी। यहाँ पर विशाल मस्त राम घाट है, जो हाल ही में एक औद्योगिक घराने द्वारा बनवाया गया है। यह पूरी नदी पर सबसे लम्बा, सबसे स्वच्छ और सबसे सुन्दर हाल ही में बनाया गया घाट हो सकता है।

औपशहर से नौ मील पर कर्णवास है, जो कि इसके पहले बायें किनारे की सहायक नदी, रामगंगा के संगम के ठीक नीचे स्थित एक देहाती गाँव है। यह साफ़ सुथरी जगह कल्याणी देवी मन्दिर का स्थान है, जिसे महाभारत काल का माना जाता है। श्रद्धालु यहाँ सार्वजनिक यातायात न होने पर भी बड़ी संख्या में आते हैं। मन्दिर में आने से पहले, वे नदी में डुबकी लगाते हैं, जो २०० गज की दूरी पर है। मन्दिर के रमणीय दरवाज़ों पर पीतल की कारीगरी है।

This family had their children’s head-shaving ceremony along the banks. Photo: Dev Raj Agarwal

नदी के किनारे परिवार ने अपने बच्चों का मुण्डन संस्कार कराया। फ़ोटो: देव राज अग्रवाल

मैं मन्दिर में जीत सिंह सोनी से मिलता हूँ। वह अपनी पत्नी के साथ, नवविवाहित बेटे-बहू को देवी से शादी का आशीर्वाद माँगने आये हैं, जो पिछले साल कोविड-१९ लॉकडाउन के दौरान हुई थी। जीत सिंह जैसे लोगों के लिए समय के साथ तीर्थयात्रा के मायने बदल गये हैं। अब, अच्छी सड़कों पर कार में बैठकर आते हैं, पूजा-पाठ करते हैं और उसी दिन रात तक घर पहुँच जाते हैं।

आस-पास के अन्य प्रमुख मन्दिर भगवती, शीतला माता और कर्ण मन्दिर हैं। आधी मील दूरी पर प्राचीन भूतेश्वर मन्दिर और एक हनुमान मन्दिर है। नदी के किनारे सुन्दर पक्का घाट है जिससे सटी हुई एक धर्मशाला है जिसमें त्यौहारों के दौरान बहुत से श्रद्धालु रुक सकते हैं।

कर्णवास में कुछ असाधारण खूबसूरत घर हैं, जिनपर अद्भुत कलाकारी की गयी है। ये घर संकरी गली के दोनों तरफ़ घाट तक चले जाते हैं। उन भयंकर दृश्यों से बिल्कुल अलग जिन्हें अभी हम जल्द ही दक्षिण की तरफ़ देखेंगे, इन पर आक्रान्ताओं द्वारा दुर्व्यवहार के कोई चिन्ह नहीं मिलते हैं। 

A woman performs puja on the river bank. Photo: Dev Raj Agarwal

एक औरत नदी के किनारे पूजा कर रही है। फ़ोटो : देव राज अग्रवाल

कर्णवास हमेशा से शिक्षा का केन्द्र रहा है, डॉ बैकुण्ठ नाथ शर्मा बताते हैं, जो कि वैदिक अध्ययन के एक विद्यालय, आचार्य रमेश गुरुजी वेद विद्या संस्थान के प्रधानाचार्य हैं। यह उज्जैन के संदीपनि राष्ट्रीय वेदविद्या प्रतिष्ठान द्वारा स्थापित सौ विद्यालयों में से एक हैं, जिनमें से दो और भी कर्णवास में हैं। शर्मा बताते हैं, वेदों के अध्ययन के साथ छात्रों को राज्य के शिक्षा विभाग के सभी विषय पढ़ाये जाते हैं। “यहाँ के बहुत से छात्र अब वैदिक अध्ययन के अध्यापक हैं। वैदिक अध्ययन में पूरी दुनिया के लोगों की रुचि बढ़ रही है, और हमारे छात्रों के पास काम की शानदार संभावनाएँ हैं।”

चार मील नीचे राजघाट है जो कि एक प्रसिद्ध स्नान घाट है, विशेष रूप से पूर्णिमा और अमावस्या के दिन। यहाँ कोई निश्चित घाट नहीं है, लेकिन एक पुल है। मैंने ध्यान दिया है कि पुल के निकट वाले घाट ज़्यादा लोकप्रिय होते हैं, क्योंकि वहाँ दोनों तरफ़ से लोग आ सकते हैं। हम रात कासगंज में बिताते हैं और अगली सुबह के लिए फर्रुखाबाद चल देते हैं।

चौथा दिन : फर्रुखाबाद से कन्नौज

Acharya Ramesh Guruji Ved Vidhya Sansthanam students with teachers in Karnavas. Photo: Dev Raj Agarwal

कर्णवास में आचार्य रमेश गुरुजी वेद विद्या संस्थान के छात्र गुरुजनों के साथ। फ़ोटो: देव राज अग्रवाल

प्रवाह की दिशा में बढ़ने पर, बदलता हुआ भूगोल गन्ने की जगह आलू के लिए सहायक होता है। यह बुवाई का समय है और खेती करने वाले परिवार अपने खेतों में व्यस्त हैं। हम इस क्षेत्र में ठीक उसी समय आये हैं जब एक माह लम्बा रामनगरिया मेला लगता है, जहाँ हज़ारों श्रद्धालु आते हैं। ज़्यादातर स्नान, नौका विहार और कुछ आनन्द लेने के लिए आते हैं, कुछ ज़्यादा महत्वपूर्ण पूजा और साधना के लिए आते हैं। इसी तरह का मेला, माघ मेला इस समय, २७ जनवरी से २७ फरवरी तक प्रयागराज में लगा है ।

मेला के दौरान, भक्तजन माँ गंगा को चढ़ावे में साड़ी पहनाकर एक विशेष पूजा करते हैं। ऐसे ही एक समूह में ३० से ज़्यादा पुरुष, महिलाएँ और बच्चे हैं जो घाट पर एकत्र हुए हैं। वे बहुत जोश में हैं और ख़ुद में खोये हुए हैं, अपने उत्सव को लेकर बहुत आनन्दित हैं। पुजारी, नाविक और एक यहाँ तक कि एक बैण्ड भी पूजा के लिए आये हुए हैं। मैं विस्मित होकर उन्हें देखता हूँ, क्योंकि मैंने यह समारोह पहले कभी नहीं देखा है।

कुछ आठ से दस साड़ियाँ, जिसमें से प्रत्येक पाँच या छः गज की है, सिरों पर एक-दूसरे से सिली हुई हैं। एक नाविक नदी के किनारे खड़ा है, जो इन साड़ियों के एक छोर को मज़बूती से पकड़े हुए है। शेष सभी लोग, बैण्ड के साथ, नाव में बैठे हैं। साड़ियों के रोल को परिवार ने पकड़ रखा है और जैसे-जैसे नाव धीरे-धीरे नदी पार कर रही है, परिवार के लड़के उसे खोल रहे हैं। युवा और वृद्ध नाव में गंगा आरती की धुन पर नृत्य कर रहे हैं।

Ramnagaria Mela in Farrukhabad; (inset) ancestral rites being conducted at the site. Photo: Dev Raj Agarwal

फर्रुखाबाद में रामनगरिया मेला; (इनसेट) स्थान पर पूर्वजों को पिण्डदान किया जा रहा है। फ़ोटो: देव राज अग्रवाल

जब वे दूसरे किनारे पर पहुँचते हैं, चमकती हुई लाल साड़ी की लम्बाई नदी की पूरी चौड़ाई पर झूलती है, जैसे कि वह पवित्र जल में अठखेलियाँ कर रही हो। सुदूर दूसरे किनारे पर वे लोग “माँ गंगा” का जयकारा लगाते हैं और भारी, गीली साड़ी को लपेट लेते हैं। ज़ोर-ज़ोर से गंगा की प्रार्थना करते हुए सब के सब नदी के इस पार वापस आते हैं और परिवार साड़ियों को पुजारी को दे देता है। वे सभी उन्माद में आधे घंटे तक नृत्य करते हैं और फिर चले जाते हैं।

यह अनुष्ठान पेहरां कहलाता है। समूह के एक सदस्य प्रवीण कुमार वाजपेयी मुझे बताते हैं कि यह माघ मेला और गंगा स्नान के समय नदी द्वारा परिवार की मनोकामना पूरी करने पर धन्यवाद देने के लिए किया जाता है।

लम्बे तम्बुओं की सैकड़ों कतारें श्रद्धालुओं के लिए लगायी गयी हैं, जिन्हें कल्पवासी कहा जाता है। इन बड़े तम्बुओं में रसोईघर, वाशरूम और पाँच लोगों के परिवार के लिए कमरा होता है। यहाँ रुकना श्रद्धालुओं के लिए संयम का समय, शरीर और मन के लिए अनुशासन, आत्म-मूल्यांकन और सुधार का समय होता है। वे सात्विक भोजन करते हैं, ध्यान करते हैं, धार्मिक प्रवचनों में भाग लेते हैं और नदी की पूजा करते हैं। स्थानीय पुजारी संजीव पंडित, जिन्होंने यह साड़ी वाला अनुष्ठान किया, इनमें से एक तम्बू में रुके हैं, एक कल्पवासी के अनुशासन का पालन कर रहे हैं और पुजारी का कर्तव्य निभा रहे हैं।

Neem Karoli Baba Ashram in Neem Karoli village. Photo: Dev Raj Agarwal
A couple married last year during Covid-19 lockdown, ready for a delayed blessing from the river. Photo: Dev Raj Agarwal

पिछले वर्ष कोविड-१९ लॉकडाउन के दौरान विवाहित एक जोड़ा, नदी से देर से आशीर्वाद लेने के लिये तैयार है। फ़ोटो: देव राज अग्रवाल

नीम करोली गाँव में नीम करोली बाबा का आश्रम। फ़ोटो: देव राज अग्रवाल

यहाँ मेले में आने वाले बहुत से हिन्दू नीम करोली गाँव में नीम करोली बाबा आश्रम भी जाते हैं, जो शहर से १५ मील दूर है जहाँ बाबा की प्रसिद्ध “ट्रेन वाली घटना” हुई थी, जिसके बाद उन्होंने गाँव का नाम लिया। वह यहाँ १९१२ से १९३५ तक रुक कर साधना करते रहे। जब मैं पहुँचता हूँ तो आश्रम में चहल-पहल है, हज़ारों लोग मन्दिर में बाबा की मूर्ति का दर्शन करने के लिए प्रतीक्षा कर रहे हैं। आश्रम के पुजारी, भानु जी महाराज मुझे प्रसिद्ध ट्रेन वाली कहानी सुनाते हैं। संक्षेप में, बाबा इस इलाक़े से ट्रेन से यात्रा कर रहे थे और प्रथम श्रेणी में बैठे हुए थे। यह पाकर कि बाबा के पास टिकट नहीं है, कण्डक्टर ने ट्रेन रुकवा दी और उन्हें नीचे उतरने को कहा। बाबा ने उसकी बात मान ली, लेकिन फ़िर इंजीनियर ट्रेन को फ़िर से चालू नहीं कर सके। यहाँ तक कि दूसरा इंजन लाया गया लेकिन वह भी इसे नहीं चला सका। एक स्थानीय मजिस्ट्रेट जो बाबा को जानता था, ने सुझाव दिया कि उन्हें साधु (बाबा) को फ़िर से ट्रेन में बैठाना चाहिए। बाबा ने स्वीकृति दे दी, लेकिन दो शर्तों पर:  रेलरोड विभाग को करोली में एक स्टेशन बनाना होगा (आसपास मीलों तक कोई स्टेशन नहीं था) और उन्हें साधुओं से बेहतर बर्ताव करना होगा। ट्रेन के अधिकारी मान गये, बाबा फ़िर से ट्रेन पर चढ़े और ट्रेन चालू हो गयी।

आश्रम से निकलने के बाद एक अच्छी सड़क पर छोटी यात्रा करके हम कन्नौज पहुँचते हैं, जहाँ हम रात बिताते हैं।

पाँचवा दिन: शिवराजपुर से प्रयागराज

Family members sing and dance during the pehran sari-draping ceremony on the Ganges. Photo: Dev Raj Agarwal

गंगा नदी को साड़ी पहनाने के संस्कार के दौरान परिवार के सदस्य नाचते और गाते हुए। फ़ोटो : देव राज अग्रवाल

कन्नौज बड़े व्यापारिक मार्ग पर स्थित एक प्राचीन शहर है। यह तीन हज़ार सालों से भारतीय इतिहास में शामिल है। यहाँ हिन्दू मन्दिरों में एक बदलाव दिखाई पड़ता है। यहाँ बहुत से मन्दिर लम्बे, पतले और ज़्यादा सजावट के साथ बनाये गये हैं, जैसे कि मुख्य सड़क के पास स्थित आनन्देश्वर मन्दिर। यहाँ का मुख्य स्नान घाट मेंहदी घाट है, जो इसके बगल में स्थित कन्नौज-हरदोई घाट से सबसे अच्छे से दिखाई देता है।

Broken relics from the time of Muslim attacks. Photo: Dev Raj Agarwal

मुस्लिम आक्रमण के समय के टूटे हुए अवशेष। फ़ोटो: देव राज अग्रवाल

इस क्षेत्र में हमारी मुख्य रुचि कन्नौज में नहीं, बल्कि छोटे से गाँव शिवराजपुर में थी जो प्रवाह की दिशा में अलीगढ़-कानपुर राजमार्ग पर २४ मील दूरी पर स्थित है। यहाँ का खेड़ेश्वर मन्दिर इस क्षेत्र की ज़्यादा अंलकृत शैली वाला अत्यन्त श्रद्धेय शिव मन्दिर है। इस भव्य मन्दिर का मुख्य शिवलिंग मुस्लिम आक्रान्ताओं द्वारा क्षतिग्रस्त कर दिया गया था। मन्दिर के पुजारी आकाशपुरी गोस्वामी ने बताया, “औरंगज़ेब ग्रैण्ड ट्रंक रोड से होकर गुज़रा और रास्ते में जहाँ कहीं भी आसानी से मन्दिर तक पहुँचा जा सकता था, उसे लूट लिया, खेड़ेश्वर भी इसका अपवाद नहीं था।” मन्दिर के पीछे मध्यकालीन मन्दिर के जटिलता से तराशे गये पत्थरों के टूटे हुए टुकड़े ज़मीन पर पड़े हैं, जो बड़ी विनाशलीला की गवाही देते हैं। बहुत सी टूटी और विकृत मूर्तियाँ और मन्दिरों के हिस्से प्रांगण में बिखरे पड़े है, जो इस क्षेत्र में पाये जाने पर यहाँ लाये गये हैं; पत्थरों के बड़ी सिल्लियाँ और पकी हुई ईंटें किसानों द्वारा खेत जोतते समय बाहर आ जाती हैं। इन मूर्तियों में रंगों की उल्लेखनीय विविधता दर्शाती है कि सम्भवतः इस क्षेत्र में एक से अधिक मन्दिर थे। एक स्थानीय पुजारी, अनिल शुक्ला मुझे बताते हैं कि राजा सती प्रसाद ने घाट के उत्तरी किनारे पर बहुत अच्छी किस्म के ईंटों से सन् १४४३ में दो मन्दिर बनवाये थे, एक शिव के लिए और दूसरा शक्ति के लिए। ऐसा लगता है कि खेड़ेश्वर में मुस्लिम आक्रमण के पूर्व कुछ सुन्दर हिन्दू मन्दिर थे, जहाँ पर उसके बाद आज का मन्दिर है। 

A plentiful potato harvest near Khereshwar temple. Photo: Dev Raj Agarwal

खेड़ेश्वर मन्दिर के पास प्रचुर मात्रा में आलू की खेती। फ़ोटो: देव राज अग्रवाल

पास के मन्दिरों में आज अश्वत्थामा और दूधेश्वर मन्दिर हैं। दूधेश्वर मन्दिर के प्रांगण में बाबा मस्त राम की एक छोटी सी समाधि है, जिन्हें बहुत से मन्दिरों का संस्थापक माना जाता है।

गंगा नदी मन्दिरों के पास से ही बहती है। सुन्दर खेड़ेश्वर घाट स्थानीय राजाओं और कुलीन घरानों के संरक्षण में बनाया गया था। नदी पिछले कुछ सदियों में घाट से दूर जाती हुई या उसके ऊपर से बहती हुई नहीं प्रतीत होती है।

Head-shaving ritual with extended family. Photo: Dev Raj Agarwal

घाट पर नदी के किनारे टहलते हुए, मैंने महसूस किया कि गंगा हमारे पूरे जीवन काल में हमारे साथ रहती है। पास के कहरैया घाट पर दाह संस्कार हो रहे हैं। यहाँ खेड़ेश्वर में, एक नवविवाहित जोड़ा, विकास और मंजू, नदी में डुबकी लगाकर माँ गंगा को धन्यवाद अर्पित कर रहे हैं। पास में पुरुषों, महिलाओं और बच्चों का एक समूह एक छोटे बच्चे के बाल मूँड़ रहे एक नाई के ईर्द-गिर्द प्रसन्नतापूर्वक एकत्र हुए हैं, जो कि हिन्दू धर्म का एक संस्कार है। वे हाथ जोड़कर नदी को बाल अर्पित करते हैं कुछ प्रसाद का आनन्द लेते हैं। बाद में मैं उन सभी को एक ट्रैक्टर द्वारा खींची जा रही बड़ी ट्रॉली पर बैठा हुआ देखता हूँ, वे गंगा की जयकार कर रहे हैं क्योंकि वे खुशी भरा दिन बिताकर शिवराजपुर से जा रहे हैं। हमारे सामाजिक/धार्मिक उद्देश्य कितनी ख़ूबसूरती से थोड़ा सा अवकाश और मनोरंजन लेकर आते हैं! 

एक संयुक्त हिन्दू परिवार के साथ मुण्डन संस्कार। फ़ोटो: देव राज अग्रवाल

खेड़ेश्वर घाट से नीचे, चन्देल राजाओं ने १५वीं शताब्दी में सुन्दर घाट और तीर्थयात्रियों के लिए सुविधाओं का निर्माण कराया था। घाटों पर कपड़े बदलने के बड़े कमरे और आगे नदी के पास रात में रुकने की सुविधाएँ हैं। दुर्भाग्य से, यह सबकुछ उपेक्षित अवस्था में है।

कानपुर से कुछ मील पहले बिठूर है, यह एक प्राचीन शहर है जिसने भारत के स्वतन्त्रता संग्राम, विशेष रूप से १८५७ के विद्रोह में अपनी मुख्य भूमिका की बहुत बड़ी क़ीमत चुकाई। बिठूर कुछ सर्वाधिक प्रमुख विद्रोहियों का घर था, जिसमें झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई भी आती हैं। जुलाई १८५७ में, कानपुर में ३०० ब्रिटिश सैनिकों, महिलाओं और बच्चों के मारे जाने का प्रतिशोध लेने के लिए, ब्रिटिश सैनिकों ने शहर को लूटा और बर्बाद कर दिया और बिठूर के २५,००० पुरुषों, महिलाओं और बच्चों को मार डाला, उनमें से बहुतों को सड़ने के लिये पेड़ों पर लटकाकर छोड़ दिया। कहा जाता है कि दुनिया में और कहीं भी ब्रिटिश शासन से छुटकारा पाने के प्रयास में इतने लोग एकसाथ नहीं मारे गये।

इतिहास में बहुत पीछे जाने पर, बिठूर वाल्मीकि के आश्रम की जगह थी, जिन्होंने राम के द्वारा वनवास दिये जाने पर सीता को शरण दी थी और उनके बच्चे, लव और कुश यहीं जन्मे थे। वाल्मीकि ने रामायण की रचना यहीं की थी।

Cremation area near Khereshwar Ghat. Photo: Dev Raj Agarwal
Central sanctum with Siva Lingam at Khereshwar Temple. Photo: Dev Raj Agarwal

खेड़ेश्वर घाट के पास दाह संस्कार का क्षेत्र। फ़ोटो: देव राज अग्रवाल

खेड़ेश्वर मन्दिर पर शिवलिंग और वेदी। फ़ोटो: देव राज अग्रवाल

कानपुर शहर में रहने वालों के लिए, माँ गंगा की पूजा करने के लिए बिठूर पसंदीदा जगह है। यह स्वच्छ और शान्त है, जहाँ नदी घाटों की लम्बी क़तारों से होकर बहती है, जिसमें से सबसे पवित्र ब्रह्मवर्त घाट है। दूसरा लोकप्रिय घाट पत्थर है, जो एक स्थानीय शासक टिकैत राय द्वारा १९वीं सदी के प्रारम्भ में लाल बलुआ पत्थरों से बनवाया गया था। उसी बलुआ पत्थर से बने हुए घाट के ऊपर स्थित महाकालेश्वर मन्दिर के प्रांगण में शिव का एक विशाल त्रिशूल है। आज यह मन्दिर एएसआई की देखरेख में है।

शाम को, हम १५ मील गाड़ी चलाकर कानपुर शहर गये, जो एक समय अपनी बहुत सी टेनरियों से निकलने वाले अपशिष्ट के कारण नदी को प्रदूषित करने के लिए जाना जाता था। वह प्रदूषण इन दिनों बहुत कम हो गया है, लेकिन रात में हमने और १३० मील यात्रा करके प्रयागराज (पहले इलाहाबाद) जाने का निर्णय लिया।

छठवां दिन: प्रयागराज से वाराणसी

Worshiper on the Yamuna Ghat in Prayagraj. Photo: Dev Raj Agarwal

प्रयागराज में यमुना घाट पर पूजा करती महिला। फ़ोटो: देव राज अग्रवाल

प्रयागराज के बारे में हिन्दुइज़्म टुडे के पुराने अंकों में काफ़ी कुछ लिखा गया है, इसलिए हम यहाँ बहुत कम समय बिताते हैं। यह माघ मेला का महीना है, इसलिए आमतौर पर क्षेत्र लाखों श्रद्धालुओं और कल्पवासियों से भरा रहता है। लेकिन कोविड-१९ की वजह से, यहाँ बहुत कम भक्त हैं, और वास्तव में कोई साधु नहीं है। घाट पर सुबह के समय लोगों का जमघट रोज की तरह ही है, लेकिन ये स्थानीय लोग हैं जो अपने रोज के पूजा-पाठ के लिए आ रहे हैं। यहाँ सुबह बिताने के बाद, हम वाराणसी निकलते हैं। हालांकि इस पर भी पहले कई बार लिखा जा चुका है, मैं उम्मीद करता हूँ कि मैं शाम को घाट पर गंगा आरती की तस्वीरें लेने के समय तक पहुँच जाऊँगा।

सातवाँ दिन: वाराणसी से कानपुर

जितनी ज़ल्दी वाराणसी में गंगा का आनन्द लेने के लिये आप जागते हैं, उतना बेहतर होता है। क्योंकि नाविक अपनी नौकाओं को पूरी ताकत से चलाते हैं, ख़ास तौर पर अगर आप कैमरे के व्यूफ़ाइंडर से देखते हैं, उगता हुआ सूरज काली छायाकृतियों में उच्च कन्ट्रास्ट निर्मित करता है। ग्राहकों की प्रतीक्षा कर रही एक नाव में बैठने की अनुमति मिलने पर, मैं अगली क़तार की सीट से घाटों पर भक्ति का प्रस्फुटन देखता हूँ। निश्चित तौर पर वाराणसी के घाटों का सर्वोत्तम दृश्य नौका विहार से ही मिलता है।

मैं गंगा कॉरीडोर के काम का निरीक्षण करता हूँ जो कि काशी विश्वनाथ मन्दिर से घाटों के बीच में एक चौड़ा रास्ता बनाने के लिए पूरे जोर-शोर के साथ चल रहा है। फ़ोटोग्राफ़ी करना माना है, दुर्भाग्य से, काम के कुछ पहलु विवादित हैं। लेकिन कॉरीडोर मन्दिर और उसके बाद नदी पर आने वाले लोगों के अनुभव को बहुत बढ़िया बना देगा। कानपुर की तरह, वाराणसी का शहर और उद्योग एक समय नदी को प्रदूषित करने के लिए कुख्यात थे, लेकिन अभी इसमें काफ़ी हद तक सुधार हुआ है, विशेष तौर पर उन क्षेत्रों में जिनमें मैंने यात्रा की।

Ancestor rituals at Brahmavart Ghat. Photo: Dev Raj Agarwal

ब्रह्मावर्त घाट पर पूर्वजों को अर्पण। फ़ोटो: देव राज अग्रवाल

दोपहर तक, मैं अपनी वापस की यात्रा के लिए तैयार हूँ, बीच में कुछ जगहों पर रुकते हुए जो वापसी के रास्ते में है। मीरजापुर जिले के विन्ध्यांचल में, मैं विन्ध्यवासिनी देवी के मन्दिर जाता हूँ। विन्ध्यांचल पर्वत श्रृंखला यहाँ शुरु होती है। विन्ध्यवासिनी भारत के सर्वाधिक प्रसिद्ध शक्तिपीठों में से एक है। हजारों भक्त यहाँ प्रतिदिन आते हैं, और पूजा करने के लिए लम्बी लाइनों में, कई बार घंटों तक लगना पड़ता है। मन्दिर के आसपास के परिसर को विन्ध्य कॉरीडोर प्रोजेक्ट के तहत खोला और चौड़ा किया जा रहा है, जिससे ५०-फुट चौड़ा परिक्रमा का मार्ग तैयार होगा जो अभी बहुत ही पतली गलियों वाले अत्यन्त सघन क्षेत्र से होती है।

मन्दिर नदी से लगभग ८० फ़ीट की ऊँचाई पर है। एक खड़ी, पतली गली ३०० गज नीचे घाट तक जाती है, जहाँ से गंगा का दृश्य दैवीय है। पानी साफ़ और बिल्कुल नीला है। नदी का दूसरा किनारा क्षितिज पर है। यह प्रयागराज में गंगा और यमुना के संगम के बाद शायद सबसे अच्छा दृश्य है।

Deoraha Baba Ashram. Photo: Dev Raj Agarwal
Brahmavart Ghat at Bithoor. Photo: Dev Raj Agarwal

देवरहा बाबा आश्रम। फ़ोटो: देव राज अग्रवाल

बिठूर का ब्रह्मावर्त घाट। फ़ोटो: देव राज अग्रवाल

आगे मुझे देवरहा बाबा आश्रम जाने का अवसर मिलता है, जो यहाँ से दो मील पर है। उस प्रसिद्ध सन्त की १९९० का देहांत हो गयी, उनकी उम्र ज्ञात नहीं थी। आश्रम एक विशाल सम्पत्ति के कोने में स्थित है जहाँ से विन्ध्यांचल श्रृंखला की लहरदार ढलानों की झलक मिल सकती है। सुन्दर मन्दिर में दर्शन के बाद, मैं देवरहा बाबा के शिष्य श्री देवरहा हंस बाबा के आवास की तरफ़ गया। दैवीय आनन्द में बीस मिनट तक गाने, और उसके बाद बहुत रुचिपूर्वक पत्रिका को देखने के बाद उन्होंने मुझे हमारे लिए एक सन्देश दिया। “जैसा कि लेखों से दिख रहा है”, उन्होंने हिन्दी में कहा, “हिन्दुइज़्म टुडे का निरन्तर यह प्रयास है कि अपनी रचनाओं को आध्यात्मिक विचारों से सराबोर कर दिया जाये, जो कि पाठकों के भीतर दैवीय चेतना जागृत करने में मदद करेगा।”

घर की तरफ़ अपनी यात्रा को करते हुए, मैं एक बार फ़िर से बिठूर में घाटों पर नौका विहार के लिए रुका, और दूसरी रात का पड़ाव शाहजहाँपुर में किया। मैं अंत में थकान से चूर होकर २९ तारीख़ को देहरादून में घर लौटा।

निष्कर्ष

सर्दी—विशेषतः फरवरी/मार्च—मैदानों में जाने का सबसे बढ़िया समय है। नदी के किनारे के विभिन्न घाटों पर अमावस्या और पूर्णिमा के दिन तरह-तरह के रंग और गतिविधियाँ होती है, इसलिए इन दिनों में जाना बहुत आनन्ददायक हो सकता है। कार्तिक पूर्णिमा (नवम्बर) के दौरान गढ़मुक्तेश्वर और फ़र्रुखाबाद का रामनगरिया मेला जैसे बड़े मेले होते हैं।  विन्ध्यवासिनी, बिठूर और कर्णवास के प्राचीन घाटों के वैभव का आनन्द को नाव से ही सर्वोत्तम ढंग से लिया जा सकता है, जिन्हें छोटी जगहों पर किराये पर लेना सस्ता होता है।

आत्मा को उद्दीप्त करने वाले इस सप्ताह ने मुझे माँ गंगा के बहुत निकट रखा, उन बड़े शहरों से कहीं ज़्यादा निकट जिनसे होकर वह गुजरती हैं। गंगा के पास घाटों, नावों और भीड़ के अलावा भी बहुत कुछ है। उसके प्राकृतिक तटों की ग्राम्य सुन्दरता, पवित्र जगहें जहाँ श्रद्धालुओं के मस्तिष्क में महाभारत की कहानियाँ अभी भी ताज़ा हैं। प्रत्येक मन्दिर, घाट और आश्रम का अपना इतिहास है। अपनी बन्द आँखों से, मैं महान महाकाव्यों की सारी जगहों और घटनाओं से जोड़ सकता हूँ, जैसे हस्तिनापुर जैसी जगहें, और राजा कर्ण, पाण्डव और कौरव जैसे चरित्र, जो आपसे में इतने तार्किक रूप में और सटीक कालक्रम में जुड़े हुए हैं। मैं प्राचीन समय के राजाओं और सामन्तों द्वारा बनवाये गये मन्दिरों और घाटों के वैभव से दंग रह गया, जिन्होंने शान्ति और मन की शान्ति की तलाश में विशाल गंगा के मैदान के इन कम ज्ञात कोनों तक पहुँचने वाले संतों और साधुओं से प्रेरणा ग्रहण की।


देव राज अग्रवाल जो देहरादून, भारत के रहने वाले हैं, जो लोगों, संस्कृति और भारत की प्रकृति की अपार विविधता, विशेषतः हिमालय की तस्वीरें लेना पसन्द करते हैं। वह भारत सरकार के वन एवं पर्यावरण मन्त्रालय, भारतीय वनस्पति सर्वेक्षण से अवकाश प्राप्त हैं। ईमेल: devrajagarwal@hotmail.com