Divine Coalescence

ईश्वर में पूर्णतया विलीन हो जाने के लिए योग के मार्ग पर एक ऋषि की कथा

नीचे दिया गया पाठ ऋषि तिरुमूलर के तिरुमन्दिरम अध्याय १४, “समय का चक्र” से लिया गया है जिसे डॉ. एस. पी. सभारतनम सिवाचार्यार ने स्वतन्त्र रूप से अनुवाद किया है, पद ७५५-७५८, ७६०-७६७ और ७६९ को स्पष्टीकरण के लिए सम्पादित कर दिया गया है।

अपने गुरु के माध्यम से भगवान नटराज द्वारा बताये गये निर्देशों पर चलकर, अब शिव के गुणों का आशीष प्राप्त योगी वेदों में बताये गये परमानन्द की अवस्था का अनुभव कर सकते हैं। ध्यान में केन्द्रित रहकर, ऐसे अनुभवों के परिणामों का बार-बार अनुभव करके, वे भगवान शिव के साथ एकात्म हो जाते हैं, और हमेशा अतुलनीय योगी के रूप में बने रहते हैं।

हे, सनातन साधक! प्रसाद योग (विशिष्ट मन्त्र को दुहराते हुए मेरुदण्ज की केन्द्रीय ऊर्जा धारा के माध्यम से श्वास को उठाने का अभ्यास) की अद्भुत प्रक्रिया में पूर्णता के स्तर पर मेरे निर्देशों को सुनो। प्रति दिन एक औसत मानव अपने प्राकृतिक अनुभवों के द्वारा जीव की ३० सामान्य अवस्थाओं से होकर गुजरता है—कुछ मूल प्रकृति का अनुभव करते हैं, कुछ अन्य अधिक परिष्कृत, और कुछ दो भौहों के मध्य ध्यान केन्द्र पर होने वाले का। अगर आप शिवयोग का अभ्यास इस प्रकार करते हैं कि केवल जीव की सामंजस्यपूर्ण दैनिक अवस्थाओं को बनाये रखा जाये—जिसमें दस दोनों भौहों के बीच होती हैं, दस हृदय के मध्य में और दस शुद्ध (निर्मल) अस्वस्थाएँ—और आप नृत्य के देवता के साथ एकाकार हो जायेंगे, जो स्वर्ण कक्ष में शाश्वत रूप से उपस्थित हैं और जो शुद्ध स्वर्ण की दीप्ति से आगे चमकते हैं। 

सभी आत्माओं, सभी विश्व और सभी वस्तुओं में भगवान नटराज की समकालिक उपस्थिति को अनुभव करने पर—जिसमें सबसे छोटे परमाणु से लेकर सबसे बड़े पर्वत तक शामिल हैं—शिवयोगी लगातार प्रसाद प्रणव के योग का निरन्तर अभ्यास करते रहते हैं जिसमें  वे अपने शरीर के अन्दर सम्पूर्ण विश्व की सीमा और आठों दिशाओं में अनुभव करते हैं। स्वयं के भीतर पूरे ब्रह्मांड को देखते हुए और कई आनंदमय दर्शनों का अनुभव करते हुए, अगर वे अपने मन को अपने हृदय कमल के अंदर बैठे नटराज के रूप में स्थिर कर सकते हैं, तो उन्हें ऐसे आनंदमय अनुभवों से सौ गुना आशीर्वाद मिलेगा।

इस विश्व में, सामान्य लोग है जो जो एक भौतिक लाभ वाले सांसारिक जीवन के लिए आगे बढ़े जा रहे हैं, जबकि वे अपनी आत्मा, संसार और ईश्वर की वास्तविक प्रकृति को जानने के लिए कोई प्रयास नहीं करते हैं। बहुत से लोग ऐसे काम करते हैं जो उन्हें या दूसरों को कोई लाभ नहीं पहुँचाते। अपने मन के ईश्वर की कृपा का अनुभव करने लायक पूर्णता तक पहुँचाये बिना, वे यह देखने में असफल हो जाते हैं कि कैसे शिव की कृपा प्रदान करने वाली शक्ति—जिसकी दृष्टि कण-कण में व्याप्त है—सभी आत्माओं के उद्धार के लिए सतत् कार्य कर रही है।

वे जो जीवन और सम्पदा के क्षणभंगुर प्रकृति को नहीं महसूस कर सकते, वह अपने शरीर को मानव जन्म के वास्तविक उद्देश्य को महसूस किये बिना ही छोड़ देंगे। सासांरिक भोग-विलास में गहराई से शामिल होने पर कोई पछतावा और अनैतिक कृत्यों के लिए शर्म महसूस किये बिना ये लोग सांसारिक जीवन के बहुत से लाभों के बारे में विस्तार से चर्चा करते हैं और पुण्य के मार्ग पर ध्यान नहीं देते। नश्वर, सांसारिक वस्तुओं का सन्तों द्वारा त्याग कर दिया जाता है, जो हर कहीं बस शिव को ही देखते हैं; जबकि सांसारिक-सोच वाले लोग इन वस्तुओं की वास्तविक प्रकृति को समझने में अक्षम हैं और इसकी बजाय वे अपने अनमोल मानव जीवन को इसका मूल उद्देश्य समझे बिना ही बर्बाद कर देते हैं।

वे जो क्षणभंगुर, नश्वर आनन्द प्रदान करने वाली सांसारिक चीज़ों से अलग रहते हैं, उन्हें एक समय के बाद एक गुरु की प्राप्ति होगी और उन्हें उस गुरु द्वारा ऊपर उठाया जायेगा जो ईश्वर से एकाकार हो चुका है, जिसने स्वयं को इस मोह-माया से मुक्त कर लिया है। यदि वे अपने हृदय में ईश्वर की उपस्थिति को अनुभव करने का प्रयास करें—जिससे सभी दुर्गुण समाप्त हो जायेंगे—वे ज़ल्द से ज़ल्द, प्रत्यक्ष रूप से उस सम्पूर्ण जीव को देखेंगे जो तत्व (सृजन करने वाले) के क्षेत्र से ऊपर उठ चुका है।

सभी आत्माओं के मार्गदर्शक गुरु, भगवान शिव इन सबके भीतर देखते हैं। वह अनादि हैं। वह प्रत्येक जीवात्मा में हैं, वह एक और एकमात्र भगवान हैं। वह प्रलय के समय एकमात्र इकाई के रूप में होते हैं, वही आठों दिशाओं में व्याप्त हैं। वह आत्माओं को उनके बन्धन की अवस्था से मुक्त करने के लक्ष्य के प्रति दृढ़ हैं। इस प्रकार, वह स्वयं ही उच्चतम अवस्था तक ले जाने वाले प्रमुख मार्ग बन जाते हैं। जो उनके साथ एकात्म होना चाहता है, वह उनके लिए अन्तिम शरण हैं।

ऐसे संकल्पबद्ध लोगों के पास मृत्यु के देवता, यम नहीं आते; उनकी परमानन्द की अवस्था में कोई व्यवधान या बाधा नहीं होती। उसके बाद वे अपना ध्यान सभी मनुष्यों पर केन्द्रित कर लेते हैं और उनके मार्गदर्शक और रक्षा करने वाले गुरु बन सकते हैं। वे उन लोगों द्वारा महसूस किया जाने वाला अन्तिम और सार्वभौमिक सत्य होता है जो प्रत्येक आत्मा में शिव की उपस्थिति को देख सकते हैं। क्या ऐसा सम्भव है कि इस सार्वभौमिक सत्य को उन तक पहुँचाया जाये तो ऐसी अवस्था प्राप्त करने का प्रयास नहीं करते हैं?

वह अनिवार्य सत्य जो मैं तुम्हें बताता हूँ यह है कि यह सब सार्वभौमिक मार्ग हैं, जो “अ”, “उ” और “म्” के उच्चारण के साथ शुरु होता है। अन्य शब्दों का उच्चारण जिनके अन्त में “म्” आता है, प्रसाद योग के विभिन्न चरणों पर मनन करते हुए करना चाहिए। इस मन्त्र को दुहराने से ईश्वर के साथ एकाकार हुआ जा सकता है।

कोई भी परमपिता के शाश्वत और पारलौकिक निवास को नहीं जानता। वह अपना निवास उनके हृदय में बनाते हैं जो उनके अस्तित्व के सर्वोच्च धरातल को पहचान पाते हैं। वह वहाँ सतत् विद्यमान रहते हैं, और उनकी सर्वव्यापक प्रकृति भी बनी रहती है। यदि साधक अपने स्वयं के हृदय के सूक्ष्मतम स्थान में ईश्वर की जीवन्त उपस्थिति को अनुभव करता है, तो उसी समय वह स्वयं शिव बन सकता है।

वे बहुत दुर्लभ हैं जिन्होंने शिव के साथ पूर्ण रूप से एकाकार होने का अनुभव किया है। यहाँ, पूर्ण रूप से एकाकार होने की इस अवस्था को प्राप्त करने की प्रक्रिया को सुनो: प्रसाद मंत्र के योग का अभ्यास करें जिसमें आप उस मंत्र से जुड़े अश्रव्य ध्वनि और साकार प्रकाश में शिव और आत्मा के एकाकार हो चुके अस्तित्व को देखते हैं। उस अवस्था में, भगवान शिव साधक के चिन्तन के माध्यम से स्वयं को दृश्य बना लेते हैं।

यदि आप इस प्रकार अभ्यास करते हैं, आप स्वयं के भीतर ब्रह्मा और विष्णु की उपस्थिति को भी महसूस कर सकते हैं; अपने फ़्रेम में रुद्र और महेश्वर की उपस्थिति का अनुभव करते हैं; शक्ति और सदाशिव की उपस्थिति देखते हैं। यहाँ तक कि, आप शिव और अपनी आत्मा के अविभाज्य मिलन का भी अनुभव कर सकते हैं—क्योंकि मिलन की ऐसी अवस्था आपके लिए पहले ही तैयार की जा चुकी है।


डॉ. एस. पी. सभारत्नम शिवाचार्यार, जो आदिशैव पुरोहित वंश से आते हैं, प्राचीन तमिल और संस्कृत में दक्ष हैं,तथा वेदों, आगमों और शिल्प शास्त्रों के विशेषज्ञ हैं। यह अंश ऋषि तिरुमूलर की तिरुमन्दिरम् के उनके अनुवाद से लिया गया है।