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“अभ्यास परिपूर्ण बनाता है ” निश्चित रूप से एक आम प्रयोग में लाये जाने वाला वाक्यांश है. साधारणतया यह दर्शाता है कि कैसे हम उस कौशल को प्राप्त कर पायें जो हमारे पास नहीं है. उदाहारण के तौर पर मानो हम कहते हैं कि हम अपनी दो तर्जनी उँगलियों से एक मिनट में बीस शब्द टाइप कर पाते हैं. हम एक निर्णय लेते हैं कि हम इस कौशल को बेहतर बनायेंगे और एक टाइपिंग क्लास में छेह महीने भाग लेते है और रोज़ अभ्यास करते हैं. हम बिना की- बोर्ड को देखे अपनी दस उँगलियों का प्रयोग करके पचास शब्द प्रति मिनट की औसत से टाइप करने का कौशल हासिल कर लेते हैं! हमारे अभ्यास नें हमें और अधिक परिपूर्ण बना दिया.

जब इस अवधारणा को हम अपने अध्यात्मिक जीवन में प्रयोग करते हैं , यह एक अलग अर्थ ले लेता है. वो इसलिए कि हमारा अन्दर का सार , हमारी आत्मा कि प्रकृति , पहले से ही परिपूर्ण है. हमारा अभ्यास , या स्वयं कि चेष्टा हमारे भीतर कि परिपूर्णता को हमारे बहार के बौद्धिक , भावनात्मक एवं सहेज स्वभाव में लाने के लिए है. इस प्रकार हम कहावत में संशोधन करते हुए कह सकते हैं -“प्रयास से परिपूर्णता प्रगट होती है “.

रामकृष्ण मठ एवं मिशन के स्वामी रंगनाथनंदा (१९०८-२००५) नें बहुत ही ख़ूबसूरत तरीके से इस विचार को एक लेख में व्यक्त किया जिसे हमने १९९९ में चिकित्सा नैतिकता के विषय पर प्रकाशित किया था. उन्होंने कहा कि हिन्दू कि दृष्टि से मानव ” एक
वास्तव में , सच्ची प्रक्रति की आत्मा है जो कि अमर , स्वयं प्रकाशमान , सारी शक्ति , ख़ुशी एवं गौरव का स्त्रोत है. वो हर चीज़ जो आत्मा के देवत्व के प्राकट्य में सहायक है वेह लाभप्रद एवं नैतिक है और वो सब जो इस भीतर कि अभिव्यक्ति को रोकता है हानिकारक है एवं अनैतिक है.”

हिन्दुइज्म टुडे के संस्थापक सतगुरु सिवाय सुब्रमुनियस्वामी नें हमारी दिव्य प्रकृति का एक संक्षिप्त विवरण इन शब्दों में दिया- ” अपने भीतर कि गहराई में हम इस क्षण भी परिपूर्ण हैं, और हमें इस पूर्णता को सिर्फ खोज लेना है और इस परिपूर्णता तक जीना है सम्पूर्ण होने के लिए. हमने एक भौतिक शरीर में जन्म लिया है जिससे कि हम विकास कर सकें अपनी दिव्य क्षमता को हासिल कर सकें. आतंरिक रूप से हम पहले ही परमात्मा के साथ एक हैं. हमारे धर्म के पास वो ज्ञान है कि हम कैसे इस एकता को समझ सकें और रास्ते में होने वाले गैर जरूरी अनुभवों का सृजन ना करें.” हम अपनी दिव्य क्षमताओं का विकास कैसे करें इस विषय पर अपने विचार व्यक्त करते समय में अक्सर नृत्य के दृष्टान्त को इस्तेमाल करता हूँ. में श्रोताओं से पूछता हूँ, “एक युवा को एक अच्छा हिन्दू शास्त्रीय नृत्य करने के लिए सबसे आवश्यक चीज़ क्या होती है ?” ज्यादातर बहुत से लोग वही उत्तर देते हैं जो मेरे दिमाग में होता है : “अभ्यास!” नृत्य के बारे में पुस्तकें पढने से आप एक अच्छे नृत्य करने वाले नहीं बन सकते. ना ही सिर्फ कक्षा में शामिल होने से अगर आप अभ्यास नहीं करते. लगातार अभ्यास कि आवश्यकता है जिससे की शरीर लचीला हो सके और कई हरकतों, स्थितियों मुद्राओं, इशारों एवं भाव भंगिमाओं पर आपका अधिकार हो सके. इसी प्रकार से , अपनी दिव्य क्षमताओं का विकास करने के लिए – अपनी भीतरी परिपूर्णता को अपने बाहरी बौद्धिक एवं सहज प्रकृति में प्रगट होने देने के लिए – आवश्यकता है नियमित अभ्यास की.

एक मुलभूत अभ्यास जिसपर मैं पहले ध्यान देने की सिफारिश करता हूँ वो है घर के पूजा स्थल में रोज़ पूजा करना और बेहतर होगा कि इसे सूर्योदय से पूर्व किया जाये. हर हिन्दू के निवास में एक पूजा स्थल होना चाहिए. यह इतना साधारण भी हो सकता है कि एक शेल्फ या ऐसी एक जगह हो जहाँ भगवान के चित्र रखे हों , या फिर यह एक पूरा कमरा हो जो सिर्फ पूजा और ध्यान के लिए समर्पित हो. बहुत से परिवारों के एक आध्यात्मिक मार्गदर्शक या गुरु होते हैं एवं वे उनकी तस्वीरें पूजा स्थल में लगते हैं. अगर आप घर से दूर रहते हैं, मसलन किसी विश्वविद्यालय में , तो वहां मात्र एक चित्र भी काफी होगा . इस पवित्र जगह पे हम एक दिया जलाते हैं, घंटी बजाते हैं एवं नित्यप्रति पूजा करते हैं. आधिकतर भक्त एक औपचारिक पूजा करते हैं या फिर आत्मार्थ पूजा करते हैं. इस नियमित दैनिक पूजा को उपासना कहा जाता है. निवासी कार्यस्थल या स्कूल जाने से पूर्व आशीर्वाद प्राप्त करने हेतु पूजा स्थल पे जाते हैं. अन्य समय पर व्यक्ति इस पूजा स्थल में बैठ के पूजा करते हैं, प्रभु के नाम को जपते हैं, भक्ति पूर्ण गीत गाते हैं , शास्त्रों का पठन करते हैं एवं ध्यान करते हैं. घर का पूजा स्थल एक अच्छी जगह होता है जहाँ व्यक्ति अपने को पूजा एवं चिंतन द्वारा पुनः केन्द्रित कर सके जब वेह भावनात्मक रूप से विचलित होता है.

हिन्दू पूजा कि एक दूसरी अभिव्यक्ति होती है उत्सव, पवित्र दिन, एक विशेष दिन को प्रति सप्ताह पवित्र दिन के रूप में मनाना एवं सारे साल प्रमुख त्योहारों को मनाना. साप्ताहिक पवित्र दिन पर परिवार घर के पूजा स्थल को साफ करते हैं एवं सजाते हैं, पास के मंदिर में भी जाते हैं एवं उपवास रखते हैं. इस प्रकार के साप्ताहिक आने जाने को व्यावहारिक बनाने के लिए , हिन्दू ऐसे जगह रहने का प्रयास करते हैं जहाँ से मंदिर जाना एक दिन में हो सके. जो मंदिर के इतने पास नहीं रहते कि साप्ताहिक रूप से जा सकें वे जितना अधिक जा सकते हैं उसकी चेष्टा करते हैं एवं भरसक प्रयास करते हैं कि बड़े त्योहारों पर अपनी हाजरी लगा सकें.

मंदिर एक पवित्र भवन होता है, जिसकी आराधना प्रभु के निवास के रूप में होती है. यह इसलिए कि इसकी वास्तुकला रहस्यमय होती है, अभिषेक होते हैं, लगातार रोज पूजा होती है. पूजा योग्य पुजारियों के द्वारा के जाती है जो शास्त्रों से संस्कृत मन्त्रों का जाप करके मूर्ति का आव्हान करते हैं एवं अनेकानेक चढ़ावे प्रस्तुत करके अंत में आरती करते हैं- जिसमे घी से ज्वलंत दीयों को मूर्ति के समक्ष लहराया जाता है जबकि घंटियाँ जोर से बजायी जा रही होती हैं. मूर्ति विशेष रूप से पवित्र होती है. मूर्ति के द्वारा ही प्रभु कि उपस्थिति एवं शक्ति का अहसास होता है उन भक्तों को जो पूजा में आशीर्वाद एवं कृपा प्राप्ति के लिए सम्मिलित होते हैं.

हिन्दू पूजा पद्धतियों कि तीसरी अभिव्यक्ति है तीर्थयात्रा. कम से कम एक बार प्रतिवर्ष , एक यात्रा की जाती है जिसका उद्देश्य होता है पवित्र व्यक्तियों, मंदिरों एवं स्थलों के दर्शन, आदर्श रूप में यह व्यक्ति के स्थानीय क्षेत्र से दूर होते हैं. इस प्रवास के दौरान , भगवान, भगवानों एवं गुरुजनों पर ही व्यक्ति का सम्पूर्ण ध्यान केन्द्रित होता है. सारे सांसारिक मामले एक तरफ कर दिए जाते हैं. इस तरह तीर्थ यात्रा व्यक्ति के प्रतिदिन की आम चिंताओं से छुटकारा प्राप्त कराती है. विशेष प्रार्थनाएं दिमाग में रक्खी जाती हैं एवं तपस्या और किसी प्रकार का बलिदान इस प्रक्रिया का हिस्सा होता है. दरअसल इसकी तैयारी का उतना ही महत्व है जितना कि तीर्थ यात्रा का. तीर्थयात्रा के दिनों एवं हफ़्तों पहले से भक्त लोग अध्यात्मिक अनुशासन का पालन शुरू कर देते हैं, जिन्मे भारी भोजन कम करना एवं हलके भोजन को खुराक में बढ़ा देना , हर सप्ताह एक दिन का उपवास रखना, प्रतिदिन सोने से पहले शास्त्रों का अध्यन करना एवं सप्ताहांतों पे धार्मिक कार्यों को आम समय में लगा रहे समय से दुगना कर देना शामिल है.

यह तीन प्रकार की पूजा- प्रतिदिन पूजा, पवित्र दिन और तीर्थ यात्रा – हमारे भीतर की सम्पूर्णता को बाहर की प्रकृति में प्रगट करने में सहायक होते हैं. हिंदुइस्म का एक चौथा आयाम जिसे अपनाया जा सकता है एक मूल भूत क्रिया के रूप में , वेह है धर्मं या सात्विक जीवन , एक निस्स्वार्थ भाव से जीवन यापन जिसमे कर्त्तव्य एवं सद्व्यवहार का पालन हो , जिसमें बुरे व्यव्हार के लिए प्रायश्चित हो. व्यक्ति निस्वार्थ होना सीखता है दूसरों के विषय में पहले सोच कर, अपने माता पिता, बड़ों एवं स्वामियों के प्रति सम्मानजनक हो कर, अध्यात्मिक कानून का पालन करते हुए- विशेष कर अहिंसा के, जो की सभी प्राणियों के प्रति मानसिक, भावनात्मक एवं शारीरिक रूप से चोट ना पहुचने वाली हो. धर्म को कायम रखने के लिए एक महत्वपूर्ण केंद्र होगा दस नैतिक संयम या यम नियमों को कायम रखना. पहला संयम अहिंसा सबसे महत्वपूर्ण है. अन्य हैं : सत्य , सत्यवादिता ; अस्तेय , चोरी ना करना ; ब्रह्मचर्य , यौन पवित्रता ; क्षमा , धैर्य ; धृति , दृढ़ता ; दया , करुना ; अर्जवा, ईमानदारी, सीधापन ; मिताहार , संयमित भोजन एवं शाकाहार ; एवं शौच , पवित्रता. हमारा पांचवा अभ्यास है चली आ रही परम्पराओं का पालन, जिन्हें संस्कार कहते हैं. इन महत्वपूर्ण समारोहों में , व्यक्ति परमात्मा , भगवानों , गुरु, परिवार एवं समुदाय का आशीर्वाद प्राप्त करता है , जब वेह जीवन के एक नए चरण को शुरू करता है. पहला बड़ा संस्कार है नामकरण , नाम देने की परंपरा , जो हिंदुइस्म के एक विशेष सम्प्रदाय में औपचारिक प्रवेश की ओर इशारा करता है. इसे जन्म के ११ से ४१ दिनों के अन्दर किया जाता है. इस समय , संरक्षक देवों को बच्चे को जीवन भर देखने की ज़िम्मेदारी दी जाती है. अन्नाप्रशाना , पहली बार ठोस आहार दिया जाना , लगभग छेह माह की अवस्था में आयोजित होता है. विद्याराम्भ से शुरुआत होती है औपचारिक शिक्षा की , जब लड़के या लड़की द्वारा वर्णमाला का पहला शब्द कच्चे चावलों से एक थाली में लिखा जाता है. विवाह, शादी का संस्कार है , एक विस्तृत एवं ख़ुशी से भरा समारोह जिसमे यज्ञ की अग्नि बीचोबीच होती है. अंत्येष्टि , अंतिम संस्कार , जो आत्मा को आतंरिक दुनिया में प्रवेश के लिए मार्गदर्शन देता है, इसमें शामिल होता है शरीर को तैयार करना, दाह संस्कार , हड्डियों को एकत्र करना, राख का विसर्जन एवं घर की शुद्धि.

इन पांच प्रथाओं को सतगुरु सिवाय सुब्रमुनियस्वामी नें पाँच नित्य कर्म ” पांच सनातन अभ्यास” कहा है , वे कहते हैं, ” हम यह कह सकते हैं की ये वेदों एवं आगमों के सन्देश का एक मिश्रण हैं जो नित्यप्रति एवं वार्षिक धार्मिक जीवन को मार्ग दर्शन देते हैं. यह पांच अनिवार्य धार्मिक अभ्यास सरल हैं और सभी पर लागू होते हैं. इनका अध्यन करें एवं इनका अभ्यास अपने जीवन में करें.

– उपासना , पूजा

– उत्सव , पवित्र दिन

– तीर्थयात्रा, तीर्थ

– धर्मं , धार्मिक जीवन

– संस्कार, पुनीत कर्त्तव्य

यह पांच कर्त्तव्य , अगर इमानदारी से किये जाएँ तो यह
हमारी दिव्य क्षमता के विकास एवं हमें आगे बढ़ाने में मददगार उपकरण साबित हो सकते हैं. बहुत से हिन्दू प्रयास करके एक कदम आगे जाते हैं दीक्षा प्राप्त करने के लिए, जिसे वे एक योग्य पुरोहित या गुरु से प्राप्त करते हैं. मंत्र दीक्षा प्राथमिक दीक्षा है, एक विशेष मंत्र का सशक्तिकरण , जो क़ी व्यक्तिगत साधना के बतौर किया जाता है एवं ज़िम्मेदारी दी जाती है कि उसका जाप एक दैनिक अभ्यास के रूप में किया जाय और कम से कम १०८ बार उसे दोहराया जाये. दूसरी दीक्षा वो दीक्षा होती है जिसमे एक विशेष प्रकार कि पूजा की जाती है एवं इसे घर के मंदिर में रोज़ करने की प्रतिबधता होती है.

हिंदुइस्म में यह काफी नहीं है कि कृपा के लिए प्रतीक्षा की जाये. अधिकतर भक्तों को पता है कि पृथ्वी पर हर एक जीवन एक अवसर होता है उन्नति करने का एवं इसलिए उनको उन उपकरणों का लाभ उठाना चाहिए जो की उनका धर्मं उन्हें उपलब्ध करता है. इन पांच परंपरागत अभ्यासों का पालन करने से , धीरे धीरे उस सम्पूर्णता की प्राप्ति होती है जो हमारे भीतर प्रतीक्षा कर रही होती है.