How Satsang Made Me a Strong Hindu
माता अमृितानन्दामयी न्यू यॉर्क, २००५. एम.ए. सेंटर में
अन्ततः, मेरे पास एक ऐसी जगह थी जहाँ मैं धर्मशास्त्र, आचरण और उन मसलों पर जो मुझे बचपन से परेशान करते थे, सवाल पूछ सकती थी और स्पष्ट तथा आधिकारिक उत्तर पा सकती थी
कुमुद वेंकटेशन
जब भगवान राम ने अपनी गर्भवती पत्नी सीता को वन में भेजा, मैं दुःख से भर गयी और भगवान राम से नफ़रत करने लगी! मेरा उत्सुक युवा मन सीता को घने जंगलों में देखकर आहत था। मैं भगवान कृष्ण को नापसन्द करती थी जब मैंने पढ़ा कि उनकी १६,००० पत्नियाँ थीं। मुझे तब बहुत बुरा लगता जब मेरी दादी लम्बी-चौड़ी पूजा करतीं और सोमवार को व्रत रहतीं। पास के मन्दिर में वैदिक मन्त्र और लम्बे-चौड़े पूजा-पाठ से मुझे नाराज़गी होती थी। मेरे प्रित पिता—जो एक इंजीनियर थे—मुझे भगवद्गीता और भगवान कृष्ण की महिमा बताते, लेकिन वह भी प्राचीन कहानियों और प्रथाओं के पीछे के गहन कारणों को नहीं जानते थे।!
बंगलुरु में बड़े होने के दौरान, मैं कभी-कभार घर पर प्रार्थना की और त्यौहारों के दौरान अपने पिता का मन्दिरों में साथ दिया, केवल उन्हें प्रसन्न करने के लिए। मेरे स्कूल में—जो एक इसाई कैथोलिक स्कूल था—हम अपनी रोज़ की पढ़ाई एक प्रसिद्ध प्रार्थना “हमारे पिता” के बाद शुरु करते थे। मैं अपने इसाई और मुस्लिम दोस्तों से ईर्ष्या करती थी क्योंकि उनके पास उनका मार्गदर्शन करने के लिए बाइबिल और कुरान थे। लेकिन हिन्दुओं के पास? मैं हिन्दुओं के बहुत से प्राचीन ग्रन्थों और देवताओं से भ्रमित थी। मेरे मस्तिष्क में प्रश्न भरे रहते थे। हमें किस पवित्र किताब को पवित्र मानना चाहिए? हमारे पास इतने देवता क्यों हैं? मैं ईश्वर के प्रति अन्धश्रद्धा रखती थी, लेकिन मैं अनगिनत देवताओं से लेकर मन्दिरों की प्रथाओं से लेकर पशुओं की बलि से लेकर मन्त्रोच्चार तक हर चीज़ से ऊब गयी थी। संक्षेप में, मेरा मस्तिष्क बहुत से प्रश्नों से भरा हुआ था जिसके तार्किक और ठोस उत्तर नहीं थे, जो मुझे व्यग्र और कभी-कभी मेरे धर्म से नफ़रत करता हुआ छोड़ देते थे।
एक वयस्क के रूप में, मेरी शादी एक दुःस्वप्न थी, जिसमें बहुत से कर्मकाण्ड भरे हुए थे। मैं बस अपने माता-पिता, भावी पति, ससुराल वालों और रिश्तेदारों को खुश करने के लिए मुस्कुरायी! जब मैं अपनी शादी के बाद अमेरिका आयी, तो मेरे पति और मैं त्यौहार के दिन मन्दिर जाते। जब हम ईश्वर, धर्म, दर्शनों या परम्पराओं की बात करते तो वह अक्सर मुझे बताते कि वह तिरुकुरल से प्रभावित थे। जब मैंने पहली बार उपनगरीय डेट्रॉयट हिन्दू मन्दिर में अग्नि की पूजा या देवताओं का स्नान देखा, तो मैं कल्पना कर रही थी कि क्यों कि क्यों इतने बुद्धिमान लोग समय-बर्बाद करने वाले कर्मकाण्डों को देखने में रुचि रखते हैं। मैंने केवल इन भारी-भरकम कर्मकाण्डों में मानवशक्ति का बड़ा नुकसान देखा! यहाँ तक कि मैं नाराज़ हो जाती जब मैं सुनती कि अमेरिका में कोई नया हिन्दू मन्दिर बनाया जा रहा है। घर पर, मैं यान्त्रिक तौर पर सुबह कुछ पूजा करती थी। यहाँ तक कि एक वयस्क के रूप में भी, मैं अपने धर्म के बारे में अनगिनत प्रश्नों को लेकर परेशान रहती थी।
युवा स्वामी चिन्मयानन्द भारत में १९५० के दशक में एक अनौपचारिक सत्संग करते हुए। चिन्मय मिशन
प्राचीन समय में शास्त्रार्थ। एस. राजम
जब मैंने अपने बेटे को जन्म दिया तो सब कुछ बदल गया। जब वह लगभग एक साल का था, मेरी सासू माँ हमारे पास डेट्रॉयट में आयीं। हमने लगभग हर सप्ताह मन्दिर जाना शुरु किया, और धीरे-धीरे मेरा परिचय सत्संग से हुआ—सही अर्थों में, “आध्यात्मिक जुटान”। स्वामी तेजोमयानन्द उन्हें इस प्रकार समझाते थे: “सत्संग अच्छाई, सदाचार, सत्य और वास्तविकता से जुड़ाव है। महान लोगों के वीडियो और ऑडियो कैसेट को देखना और सुनना भी सत्संग है”। सबसे पहले, मैं मन्दिर में सैकड़ों लोगों को रामायण, महाभारत, तिरुकुल, भगवद्गीता और पुराणों के बारे में शिक्षाप्रद चर्चा सुनते देख अचम्भित हो गयी।
इस अवधि के दौरान, मैंने हिन्दुइज़्म टुडे पत्रिका पढ़ना भी शुरु किया, जिसने हिन्दू धर्म के सन्दर्भ में बहुत से मिथकों और भ्रमों को साफ़ किया। सत्संग बहुत मनोरम था और मुझे शिक्षित आत्माओं, स्वामियों गुरुओं द्वारा गहन शास्त्रों को समझाने और उनकी प्राचीन प्रज्ञता को आधुनिक जीवन के साथ जोड़ने का तरीक़ा पसन्द आया। सौभाग्य से, सत्संग में जाने से मुझे कर्मकाण्डों और मन्त्रोच्चार से लेकर बहुत से देवताओं के महत्व और प्रार्थना की शक्ति समझ में आयी।
जब मुझे अन्ततः मेरे सभी प्रश्नों को ठोस और तार्किक उत्तर मिल गये, मुझे कैंडी की दुकान में एक बच्चे की तरह महसूस हुआ। सत्संग ने न केवल मुझे इसके उत्तर दिये कि क्यों भगवान राम ने सीता को वन में भेजा था, और क्यों भगवान कृष्ण के कई पत्नियाँ थीं, बल्कि इसने मुझे मेरे जीवन के ‘बिखरे हुए सूत्रों को जोड़ने’ में बहुत सहायता की। सत्संग ने मुझे दिखाया कि भौतिक जगत से पर कुछ बहुत मूल्यवान और शाश्वत है। सत्संग में जाने ने मुझे अत्यधिक खुशी प्रदान की और मेरे अन्दर सुखद अनुभूतियों को उत्पन्न किया। स्वर्गीय डॉ. बन्नांजे गोविन्दाचार्य के शब्दों नें मुझे गहराई से प्रभावित किया है: “अग्नि पुराण के अनुसार, सभी मनुष्यों को अपने हृदय में अहिंसा, सभी प्राणियों के लिए प्रेम, आत्म-नियन्त्रण, करुणा, आध्यात्मिक ज्ञान, ध्यान और धर्म के फूल खिलाने चाहिए, और इन फूलों से पूजा करनी चाहिए। ये फूल ईश्वर को बहुत प्रिय हैं।” प्रत्येक क्षण, मैं अपने विचारों और क्रियाओं में इन सुन्दर फूलों का प्रयोग करने का सर्वोत्तम प्रयास करती हूँ।
आज, मैं अपने शाश्वत धर्म को समझती हूँ। मैं अब अपनी आध्यात्मिक यात्रा का उस ज्ञान के कारण आनन्द लेती हूँ जो सत्संग से आया है। रामचरितमानस में तुलसीदास कहते हैं, “सत्संग के बिना, हमें विवेक नहीं प्राप्त होता, अर्थात् यह विभेद करने की समझ और यह जानना कि क्या सही है और क्या ग़लत है।” प्रत्येक सुबह जब मैं अपने दैनिक कर्तव्यों और चुनौतियों के सामने होती हूं, स्वामी विवेकानन्द के शब्द मेरे मस्तिष्क में कौंधते हैं: “दुनिया के बड़ी व्यायामशाला है जहाँ हम स्वयं को शक्तिशाली बनाने आये हैं।” जब समस्याएँ मेरे सामने होती हैं, तो मैं कर्म की गहन अवधारणा और मोक्ष के अपने अन्तिम लक्ष्य अर्थात् पुनर्जन्म से मुक्ति को याद करने का प्रयत्न करती हूँ। जादुई ढंग से, मुझे गहन शक्ति और सहजता प्राप्त हुई, और मैं अपनी समस्या को हल कर सकती हूँ। मैंने ध्यान दिया कि मेरा बात-बात पर क्रोधित होना, अंहकार, अधैर्य या ईर्ष्या कई सत्संगों के बाद बहुत कम हो गयी। कई वर्षों तक, मैं इतनी ईर्ष्यालु महसूस करती थी कि मैं चित्रकारी या गाने में अच्छी नहीं हूँ। अब, मैं सफल और प्रतिभाशाली लोगों को देखकर प्रसन्न होती हूँ, और मैं सबसे प्रति करुणामय और दयालु रहती हूँ।
मैं सोचती थी कि क्यों मुझे तब सत्संग में जाने का अवसर नहीं प्राप्त हुआ जब मैं छोटी थी। लेकिन मैं मुस्कुराती हूँ जब मेरे मन में कर्म की अवधारणा आती है। मैं महसूस करती हूँ कि ब्रह्माण्ड में सब कुछ ईश्वर का दैवीय खेल है। मैं समझ गयी हूँ कि प्रत्येक व्यक्ति को उनकी प्रकृत, पिछले जन्म और कर्म के आधार पर अद्भुत योग्यता और गुण प्रदान किये गये हैं। मैं पूरे हृदय से स्वामी विवेकानन्द की शिक्षा से सहमत हूँ, “आध्यात्मिक ज्ञान वह एकमात्र चीज़ है जो हमारे दुःखों का हमेशा के लिए नाश कर सकता है। कोई अन्य ज्ञान इच्छाओं को केवल एक समय के लिए सन्तुष्ट करता है।”
कर्म, आत्मा, स्वीकृति और सहिष्णुता जैसी शाश्वत अवधारणाओं को हमारे ग्रन्थों में बहुत शानदार ढंग से समझाया गया है। आज, आत्म-ज्ञानी सन्त और गुरु मन्दिर की जुटान, सीडी और यूट्यूब पर इन अवधारणाओं को बहुत स्पष्टता से समझाते हैं। वेदों के अनुसार, सत्य के विषय में श्रवणम् (सुनना), मननम् (विचार एवं चिन्तन), और निधिध्यानासनमे (ध्यान) सही ज्ञान प्राप्त करने की विधि है। सत्संग शाश्वत सत्य को सुनने और इस पर चिन्तन करने का अद्भुत अवसर है। हिन्दू धर्म के सभी दर्शनों के इस अध्ययन से, मैं समझ रही हूँ कि अपनी भक्ति, ईश्वर के प्रेम में कैसे वृद्धि करनी है।
मेन, अमेरिका में स्वामी विवेकानन्द, १८९४
नियमित रूप से सत्संग में जाने ने मुझे सात्विक जीवनशैली का पालन करने, अपने कर्तव्यों का निष्ठा से पालन करने, केवल आवश्यक होने पर ही बोलने, नाम जप करने, ध्यान करने, तैलीय और अस्वास्थ्यकर भोजन को न्यूनतम करने, भक्ति गीत गाने और शास्त्रों पर चर्चा करने के लिए प्रोत्साहित किया है। कभी-कभी, जब मैं किसी महत्वपूर्ण विषय पर लगातार सोचती हूँ, मैं कई दिनों तक ईश्वर के विषय में भूल जाती हूँ। फ़िर, रामकृष्ण मिशन के स्वामी मंगलनाथनन्द का “नाम जप की शक्ति” (youtu.be/wwMfkVcWK9Q) जैसे शक्तिप्रद वीडियो सुनने के बाद, मुझे बहुत अच्छा महसूस होता है। मेरे अन्दर पुनः भक्ति जागृत हो जाती है। जब मैं ईश्वर का नाम जपना शुरु करती हूँ, मैं महसूस कर सकती हूँ कि मेरा मस्तिष्क निष्कलुष है और मैं आनन्द की अवस्था में हूँ। शारदा देवी ने कहा था, “मन्त्र शरीर को शुद्ध कर देता है। मनुष्य ईश्वर के नाम का जाप करने से शुद्ध हो जाता है। इसलिए हमेशा उनका नाम दुहराते रहिए।” पिछले पापों का जप और ध्यान द्वारा प्रतिकार किया जा सकता है। अब, मैं समझती हूँ कि क्यों बहुत से हिन्दू अपने बच्चों का नाम गणेश, मुरुगन और कृष्ण रखते हैं!
मुझे महसूस हुआ कि कर्मकाण्डों से लेकर प्रार्थनाओँ और धार्मिक परम्पराओं से लेकर दर्शनों तक, सभी का उद्देश्य सर्वत्र उपस्थित ईश्वर तक पहुँचना है। स्वामी विवेकानन्द के शब्द मेरे मस्तिष्क में गूँजते हैं, “मैं ऐसे धर्म से सम्बन्ध रखने के कारण गर्वित हूँ जिसने विश्व को सहिष्णुता और वैश्विक स्वीकृति सिखाई।” मैंने महसूस किया है कि ईश्वर कर्मकाण्डों, नस्ल और धर्म से परे है। मैं समझती हूँ कि क्यों हिन्दू धर्म को सनातन धर्म के रूप में जाना जाता है। सत्संग ने मेरे मन का पुनरुद्धार कर दिया और मेरी सांसारिक इच्छाओं को कम कर दिया। मुझे अनिश्चित समयों में भी स्थिरचित्त और शान्त महसूस होता है। मुझे अभी भी मोक्षा प्राप्त करने के लिए लम्बी दूरी तय करनी है, लेकिन धर्म के पथ पर चलने और अपनी सर्वोत्तम क्षमते के अनुसार अपने कर्तव्यों का निर्वहन करने के लिए प्रेरित करने हेतु सत्संग, सन्तों और गुरुओं को पाकर रोमांचित हूँ। मैं सत्संग की हमेशा के लिए आभारी हूँ। मैं स्वामी विवेकानन्द, स्वामी चिन्मयानन्द, बन्नांजे गोविन्दाचार्य, श्री श्री रवि शंकर और दूसरों को सुनकर धन्य होती हूँ, कि इन्होंने मुझे “सच्चे ज्ञान” के पथ को समझने में सहायता की जो कि चिरस्थायी है। मैं पूरे हृदय से सहमत होती हूँ जब स्वामी तेजोमयानन्द कहते हैं, “सत्संग सबसे महान आशीर्वाद है। ईश्वर से किसी और बड़ी कृपा की प्रतीक्षा मत कीजिये।”
कुमुद वेंकटेशन, जो अटलांटा, जार्ज़िया में रहती हैं, एक पत्नी और एक छोटे बच्चे की माँ हैं। वह पर्यावरण, स्वस्थ जीवनशैली, आध्यात्मिकता के लेकर उत्साहित रहती हैं और हिन्दू धर्म को पढ़ना और चिन्तन करना पसन्द करती हैं। सम्पर्क: kumudha_1998@yahoo.com