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प्रकाशक के डेस्क से

चोट न पहुँचाना : यह है सर्वोपरि सदाचार

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कर्म के कानून में विश्वास और सभी प्राणियों के देवत्व को स्वीकार करना अहिंसा के दो स्तम्भ हैं – करुणामय गैर हानिकारकता

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द्वारा सतगुरु बोधिनाथा वेय्लान्स्वामी

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चोट न पहुँचाना हर हिन्दू का पहला और सबसे महत्वपूर्ण नैतिक सिद्धांत है. संस्कृत में इस सदाचार को अहिंसा कहा जाता है. महाभारत में इसके महत्त्व की प्रशंसा करते हुए कहा गया है , “अहिंसा सर्वोच्च धर्म हैं. यह सर्वोच्च शुद्धिकरण है. यह वो उच्चतम सत्य भी है जिससे सब धर्म चलते हैं.” शांडिल्य उपनिषद् में एक अति उत्तम परिभाषा पायी जाती है : “ अहिंसा किसी भी जीवित प्राणी को किसी भी समय अपने मन , वाणी या शरीर की क्रियाओं से दर्द नहीं पहुँचाना है.” इस गैर हानिकारकता की त्रिगुणात्मक प्रकृति की ओर ध्यान दें : यह केवल हमारे कर्मों पर ही लागू  नहीं होती परन्तु हमारे शब्दों और विचारों पर भी होती है.

क्या अहिंसा का सिद्धांत सभी परिस्थितियों में पूर्णतया मान्य होगा ? मेरे गुरुदेव , सिवाय सुब्रमुनियास्वामी  नें इस प्रश्न का जवाब कुछ “अफसोसजनक अपवादों” को तय करते हुए दिया. पहला अपवाद लागू  होगा चरम परिस्थितिओं में , जैसे कि समुपस्थित खतरे से सामना , जिस स्थिति में व्यक्तियों द्वारा चोट पहुँचाने या मारने का चयन किया जाये अपने या दूसरे के जीवन की रक्षा के लिए. एक अन्य अपवाद लागू होगा उनपे जो पुलिस बल या सशस्त्र बलों के सदस्य हों. हालाँकि , इन व्यक्तियों को  भी हिंसा का प्रयोग तब तक नहीं करना चाहिए जब तक यह बिल्कुल आवश्यक हो. उदहारण के तौर पर लॉस एंजेल्स के   पुलिस विभाग की एक नीति है जिसे कम से कम बल का उपयोग कहा जाता है और यह हिन्दू दृष्टिकोण के अनुरूप है. “ पुलिस को उतने ही शारीरिक बल का इस्तेमाल करना चाहिए जितना कानून का पालन करवाने हेतु आवश्यक हो या व्यवस्था बहाल करने के लिए , जब अनुयय , सलाह और चेतावनी पुलिस उद्देश्यों को प्राप्त कर पाने में अपर्याप्त हों ; और पुलिस को केवल उचित मात्रा में शारीरक बल का उपयोग करना चाहिए , आवश्यकतानुसार किसी विशेष अवसर पर पुलिस उद्देश्यों की पूर्ति हेतु।”

हिंसा के लिए एक सामान्य तर्कसंगति आपको , आपके परिवार को , धर्म या राष्ट्र को पहुंचाई गयी चोट के प्रतिशोध के रूप में दिया जाता है। आज दुनियां में ऐसे बहुत से व्यक्ति हैं जो यह विश्वास रखते हैं कि ऐसे मामलों में व्यक्तिगत रूप से जवाबी कारवाही करना आपका कर्त्तव्य है. इसे सामान्य तौर पर “आँख के बदले आँख” की मानसिकता कहा जाता है. हालाँकि हिन्दू धर्म इस विचार का समर्थन नहीं करता। दरअसल , हमारा सबसे पुराना शास्त्र , ऋग्वेद इसके खिलाफ बोलता है : “घूंसे के बदले घूंसा वापिस न दें , न ही अभिशाप के बदले अभिशाप , न ही नीची हरकतों के जवाब में  ओछापन। इसके बजाय आशीर्वादों की झड़ी बरसायें।”

बजाय प्रतिशोध के, हिंदूइस्म समाज द्वारा स्थापित प्रणालियों के द्वारा उपाय ढूंढने का पक्ष लेता है. उदहारण के तौर पर एक सामान्य चलचित्र के कथानक  को ले लीजिए. कोई व्यक्ति आपके भाई को एक डकैती के दौरान गोली मार कर जान से मार  देता है , और बाकी की सारी फिल्म इस के लिए समर्पित होती है कि आप उस डकैत का पीछा करते हैं और उसे गोली मार  के सजा देना चाहते हैं और बदला लेना चाहते हैं. फिर इसकी अगली कड़ी , अगले जन्म में क्या होता है ? निश्चित तौर पे बदला लेने के लिए हत्या के  एक नकारात्मक कर्म का सामना करना पड़ता है. शायद एक और डकैती जगह लेगी और आप की हत्या हो जाएगी.  अच्छा होगा कि पुलिस को डकैत से निपटने दिया जाये। पुलिसकर्मी नें कानून की रक्षा की शपथ ली होती है और इसलिए किसी  नकारात्मक कर्म की उत्पत्ति नहीं होती है, जब वो अपराधी को काबू करता है, उसके पास उसको घायल करने के सिवाय कोई चारा नहीं होता।

जब दूसरों को शब्दों से  नुकसान पहुँचाने की बात आती है, व्यक्तियों से कठोरतापूर्वक बोलना या उन पर चिल्लाना उसमें शामिल हैं और इनसे बचा जाना चाहिए। इसके साथ ही नुक्सान पहुँचाने के अधिक अप्रत्यक्ष तरीके हैं मज़ाक उड़ाना , चिढ़ाना , गपशप और पीठ पीछे निंदा करना। हम यह कैसे जानें कि हम इस प्रकार से बात कर रहे हैं जिससे दूसरे का नुक्सान हो रहा है या मदद हो रही है ? एक प्रभावी  चारमुखी परिक्षण होगा यह सुनिश्चित करना कि जो हम कह रहे हैं वो सच, दयालुतापूर्ण , मददगार एवं आवश्यक है. अगर वह ऐसा है , तब वो निश्चित रूप से चोट नहीं पहुँचाने वाला होगा।

आप सोच रहे होंगे की पीठ पीछे निंदा से किसी को कैसे नुक्सान पहुँच सकता है , क्योंकि वे आलोचना सुनने के लिए उपस्थित नहीं हैं. वे विचार के प्रभाव है जिसको महसूस कर सकते हैं. यह उन महत्वपूर्ण विचारों पर भी लागू है जिन्हे हम शब्द नहीं दे पाते।  दोनों ही चोट के अत्यधिक सूक्ष्म रूप हैं।   मेरे गुरु नें इसे एक दिलचस्प तरीके से बयान  किया : जब आप दूसरों को नीचा दिखाते हैं , मानसिक या शाब्दिक तरीके से , पीठ पीछे निंदा , गपशप  के द्वारा जो उनके जीवन की घटनाओं के बारे में होती हैं , आप उनको चोट पहुंचाते हो. आप सच्चे मायनों में उनको सफल होने में मुश्किल पैदा कर रहे हो , वे जहाँ हैं उसमें भी।  वे भांप जाते हैं , वे महसूस करते हैं उस कुरूपता को जो आप उनके प्रति पेश कर रहे हैं।  

शांडिल्य उपनिषद् में अहिंसा की परिभाषा को पुनः देखते हुए , हम ध्यान देते हैं इस वाक्यांश पे “किसी भी जीवित प्राणी को कष्ट नहीं देना।” दूसरे शब्दों में , अहिंसा मानव जाति से भी परे तक जाती है।  इसमें शामिल हैं पशु , कीड़े मकोड़े और पौधे भी।  यजुर वेद का एक छंद सीधे इसी विचार की बात करता है : “आपको अपना  भगवान  प्रदत्त शरीर भगवान के बनाये प्राणियों को मारने में इस्तेमाल नहीं करना चाहिए , चाहे वो मनुष्य हों , पशु या अन्य कोई भी।”

एक तरीका जिससे बहुत से हिन्दू इस आदेश का सम्मान करते हैं वो है एक शाकाहारी आहार का पालन करना। तिरुकुरल, जो नैतिकता पे लगभग दो हज़ार वर्ष पूर्व  लिखा गया एक महत्वपूर्ण शास्त्र है , में शाकाहार पर एक पूरा अध्याय है, “मांस खाने से परहेज़”. यहाँ कहा गया है की शाकाहार उन अंतर्दृष्टि रखने वाली आत्माओं का तरीका है जिन्होंने यह एहसास कर लिया है कि मांस किसी अन्य प्राणी की देह को कसाइयत से प्राप्त किया हुआ है और इस तरह का संयम अधिक मूल्य रखता है उन हज़ारों घी द्वारा दी गयी आहुतियों से जो बलि की अग्नि में भस्म हो जाती हैं.

एक अहिंसक दृष्टिकोण कीड़े मकोड़ो तक भी खींचा जाता है. बजाय इसके कि  घरेलु कीटों को बिना सोचे समझे मारा जाये , उनके प्रवेश को रोकना चाहिए। इसी प्रकार बगीचे के कीटों या हिंसक जानवरों को बजाय मार देने के , प्राकृतिक तरीकों से दूर रखा जाना चाहिए. एक खेदजनक अपवाद होगा  जब हिंसक जानवर , कीड़े मकोड़े , बैक्टीरिया और बीमारी मनुष्यों और उनके पशुओं  के स्वास्थ्य या उनकी सुरक्षा के लिए खतरा हों , उनका नाश किया जा सकता है.

दो दार्शनिक सिद्धांत हैं जो की अहिंसा के आधार के रूप में हैं।  पहला है कर्म का सिद्धांत। यह ज्ञान कि अगर हम दूसरों को नुक्सान पहुचाएंगे , हमें भी भविष्य में नुक्सान पहुंचेगा , हिंसा से परहेज़ करने के लिए एक शक्तिशाली प्रेरणा है।  तिरुकुरल का अध्याय जिसका शीर्ष “दूसरों को नुकसान पहुँचाने से परहेज़ करना” मुनासिब अंतर्दृष्टि प्रदान करता है : “अगर एक व्यक्ति सुबह दूसरे को दुःख का दौरा कराता  है , दुःख उसको दोपहर में बिन बुलाये दौरे पे आएगा।”

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S. RAJAM

Regrettable exceptions: While nonviolence is a guiding principle for Hindus, there are instances when violence is permitted. One such exception is the legal enforcement of law and the protection of society and the nation. Here a general directs the army, whose duty may rightly include unavoidable injury.
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अहिंसा का दूसरा आधार यह धारणा हैं कि दिव्यता सभी चीज़ों के भीतर चमकती है, सब प्राणियों में , सब लोगों में।  जब हम किसी में दिव्यता को देखते हैं , हम स्वाभाविक रूप से उनको नुकसान नहीं पहुँचाना चाहते। धर्मपरायण हिन्दू उन लोगों में भी दिव्यता देखते हैं जो कि दुष्टतापूर्ण कार्यों में रत हैं , जैसे कि अपराधी और आतंकवादी, और इसलिए उनको भी नुकसान नहीं पहुँचाना चाहते हैं. 2002 में बाली में इसका एक अद्भुत उदहारण प्रस्तुत हुआ जब आतंकवादिओं नें एक बार पर बमबारी कर के 200 लोगों की हत्या कर दी।  बाली के हिन्दुओं नें एक समारोह का आयोजन करके अपराधियों के लिए क्षमायाचना की.

हमें परहेज़ करना चाहिए पाश्चात्य परिप्रेक्ष्य का जिसके अनुसार कुछ लोग अंदरुनी बुरे होते हैं , दुश्मन होते हैं , एवं इसलिए उनके साथ अमानवीय व्यवहार करना उचित होगा।  कर्म का कानून दुश्मन को चोट पहुंचाने और मित्र को चोट पहुंचाने में फर्क नहीं करता है. तिरुकुरल पुष्टि करता है : “दूसरों को नुकसान पहुँचाना , उन दुश्मनों को भी जिन्होंने आपको अकारण  नुकसान पहुँचाया, निश्चित रूप से लगातार दुःख लाता है.”

इन दोनों दार्शनिक आधारों के अलावा , तिरुकुरल अहिंसा के लिए दो और प्रोत्साहन पेश करता है. पहला है कि उच्च विचारों वाले लोग कैसे सीधेपन से कार्य करते हैं : “शुद्ध ह्रदय वालों का यह सिद्धांत होता है कि दूसरों को कभी नुक्सान न पहुंचाएं, तब भी जब उन्हें द्वेषपूर्वक नुकसान पहुँचाया गया हो.” और दूसरा यह कि यह नुकसान पहुँचाने वाले को एक तरीका है प्रोत्साहित करने का क़ि वह अपने व्यवहार में सुधार लाये और हिंसा को त्याग दे।  तिरुकुरल अच्छी तरह से प्रस्तुत करता है : “अगर आप मिली हुई चोट के बदले में दयालुता वापिस देते हो और दोनों को भूल जाते हो , जिन्होंने आप को नुक्सान पहुँचाया है वे अपनी शर्म से ही दण्डित हो जायेंगे।”

करुणा की कमी अहिंसा के हमारे अभ्यास में बाधा डालेगी। जब हम अत्यधिक आत्मकेंद्रित हैं और दूसरों की भावनाओं से बेखबर हैं , हम किसी को आहत कर सकते हैं और उसके बारे में जागरूक भी नहीं होंगे. प्रस्तुत हैं कुछ सुझाव जो लोगों के प्रति हमारी करुणा की भावना गहरा बना सकते हैं।  एक सरल तरीका होगा कि हम पशुओं की देखभाल करें।  यह बच्चों को करुणा की शिक्षा देने में खासा उपयोगी हो सकता है. वे पशु की आवश्यकताओं को जानना समझ पाते हैं और कैसे उनकी देखभाल करें बिना उन्हें अनावश्यक रूप से परेशान और आहत किये हुए.

करुणा को बढ़ाने के एक और रास्ता है बागबानी करना और पौधों को उगाना।पौधे को ज़िंदा रखने के लिए, हमें उसकी प्रकृति को समझना पड़ता है और भली भांति देखभाल करनी होती है।  हम एक सूर्य से प्रेम करने वाले पौधे को छाँव में रख कर यह उम्मीद नहीं कर सकते के वो  अच्छी तरह रहेगा। हम एक कम पानी की आवश्यकता वाले पौधे को अधिक पानी दे कर उम्मीद नहीं कर सकते कि वो फूले फलेगा। पौधों और पशुओं का पोषण हमें अपने साथी मनुष्यों की देखभाल के लिए तैयार करता है.

एक तीसरा सुझाव कम्प्यूटरों और कम्प्यूटर खेलों से ताल्लुक रखता है।  दुर्भाग्य से ,  आजकल  बहुत से बच्चे अत्यधिक समय अकेले कम्प्यूटर में तल्लीन हो कर बड़े होते हैं , अक्सर  हिंसक वीडियो खेलों को खेलते हुए. यह उनके  सामान्य  भावनात्मक  एवं  सामाजिक   विकास की   वृद्धि को रोक सकता है.  वे करुणा से अजनबी  हो  सकते हैं ,  दूसरों के प्रति  स्वस्थ भावनाओं  की  कमी को रखते हुए. जरुरत है एक अधिक संतुलित परवरिश की , एक  उचित  कम्प्यूटर  उपयोग की जो कि संतुलित हो परिवार के सदस्यों, दोस्तों एवं अन्य से स्वस्थ बातचीत से.

प्रस्तुत है एक अंतिम उद्धरण मेरे गुरु से जो की खूबसूरती से अहिंसा और करुणा के आदर्शों  को  एक सूत्र में पिरोता है : “ करुणा का अभ्यास करें ,  सभी प्राणियों के प्रति कठोर , क्रूर  और असंवेदनशील भावनाओं पर जीत हासिल करते हुए. भगवान को हर जगह देखें।  मनुष्यों , पशुओं , पौधों और यहाँ तक की पृथ्वी के प्रति दया भाव रखें। उन्हें माफ़ कर दें जो  सच्चा  पश्चाताप   दिखाएँ एवं क्षमा प्रार्थना करें। दूसरों की आवश्यकता और पीड़ा के  प्रति  सहानभूति को बढ़ावा दें. जो कमज़ोर, गरीब , वृद्ध  अथवा  दर्द में  हैं  उनको सम्मान और सहायता दें.   पारिवारिक  दुरूपयोग और अन्य क्रूरताओं का विरोध करें।”