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प्रकाशक के डेस्क से

जीवन की चार अवस्थाओं के माध्यम से आगे बढ़ना

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आश्रम धर्मं की बुधिमत्ता को लागू करना जीवन के हर दशक को गरिमा और बढ़ा
हुआ उद्देश्य देता है , परन्तु इसके लिए कुछ नई सोच की आवश्यकता होती है

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द्वारा सतगुरु बोधिनाथा वेय्लान्स्वामी

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image राजीव के लन्दन के सहपाठी एक कर्कश किशोरों का समूह है , उत्साह से भरा ,
लापरवाह और भविष्य की जिम्मेदारिओं से बेखबर। वे उसको एक अकड़े हुए साथी
के रूप में देखते हैं – जो चतुर है, खुबसूरत है , चाहने योग्य है- लेकिन
जो मज़ा लेने में चूक कर रहा है। जेरेमी उसे उपदेश देता है , “हमारे साथ
मौज मस्ती क्यों नहीं करते ?” “आप एक बार ही जवान होते हैं !” राजीव एक
अलग दुनियां में रहता है , उसने अपने माता पिता से सीखा है कि जीवन चार
अवस्थाओं में मापा जाता है, और हम बार बार जनम लेते हैं- तो हम कई कई बार
जवान होते हैं। वेह अपनी उर्जा को महत्त्वपूर्ण बातो के लिय बचाता है ,
ज्ञान को बढाने के लिए और चरित्र निर्माण के लिए , जिससे वो परिवार की
अवस्था के लिए तैयारी कर सके, जिसमे वेह अपने बीस वर्षों वाली उम्र में
प्रवेश करेगा। वेह बेकार की मौज मस्ती में दिलचस्पी नहीं रखता , और एक
संस्कारित लड़की का हाथ जीतना चाहता है जिसके साथ वेह पूरा जीवन बाँट सके
और बच्चों को भी इस संसार में लाये . राजीव अपने आने वाले बड़ी उम्र के
जीवन के बारे में भी सोचता है , जब वेह अपने कर्तव्यों का निर्वाह करके अपने
आत्मिक स्वाभाव की तरफ खीचेगा , सदा रहने वाले राजीव की तरफ , प्रभु प्राप्ति की
चेष्टा करेगा , जब वेह अपने इस भूमि पर रहने वाले समय को पूरा करेगा। राजीव इस
बात को मानता है के जीवन की हर अवस्था का एक स्वाभाविक उद्देश्य होता है, और
हर एक पिछले से ज्यादा फायदेमंद होता है। अभी के लिए वेह विद्या अध्ययन को पूरे
ध्यान से करने का चुनाव करता है, और बीच में थोडा खेल कूद करेगा।


राजीव की योजना हिन्दू परम्पराओं पर आधारित है जो कि व्यक्ति के जीवनकाल को
चार अवस्थाओं या आश्रमों में बांटता है। यह विभाजन , जिसे आश्रम धर्मं कहते हैं , प्राकृतिक
अभिव्यक्ति एवं परिपक्वता है, शरीर , मन और भावनाओं की , इन चार प्रगतिशील अवस्थाओं
के माध्यम से। यह सदियों पहले विकसित हुई थी एवं इसका विवरण उन शास्त्रों में आता है
जिन्हें धर्मं शास्त्र कहते हैं, जो इस तथ्य पे जोर देते हैं कि हमारे कर्तव्यों में भारी परिवर्तन
आता है जैसे हम युवा से प्रोढ़ता की तरफ प्रगति करते हैं , बढे हुए सालों में , वरिष्ठ आयु में।
मैत्री उपनिषद् कहता है , ” अपने कर्तव्यों का निर्वाह उस हिसाब से, जिस जीवन की अवस्था से
हम जुड़े हैं , वस्तुतः एक नियम है ! अन्य जैसे तने से निकली हुई शाखाएं हैं। इस प्रकार से
हम ऊपर की तरफ जाते हैं , अन्यथा नीचे की तरफ।”


डॉ एस राधाकृष्णन , जीवन को देखने का हिन्दू तरीका में सार देते हुए कहते हैं ,” चारों अवस्थाएं –
ब्रह्मचर्य , या सीखने का समय, ग्रेहस्थ , या फिर दुनिया में कार्य करने का दौर एक ग्रहस्थी के रूप में ,
वानप्रस्थ , या फिर एकांत वास का समय जब सामाजिक रिश्तों को ढीला छोड़ा जाता है , और संन्यास,
या फिर त्याग का समय और स्वतंत्रता की उम्मीद में इंतजार – इशारा करते हैं कि जीवन एक तीर्थयात्रा
है सनातन जीवन विभिन्न अवस्थाओं के माध्यम से।”


यह प्रतिमान आज भी उतना ही महत्वपूर्ण और कीमती है जितना हजारों साल पहले थे , सारे हिन्दू इसे
मानते हैं , चाहे उनकी जाति या लिंग जो भी हो। हालाँकि , प्राचीन विवरण आज के आधुनिक जीवन में
पूरी तरह से अनुवादिंत नहीं हो सकते। वैदिक समय में जैसा भारत था उससे समाज काफी बदल चुका है।
उदहारण के तौर पर , सभी 50 वर्ष की आयु वालों के लिए यह संभव नहीं होगा कि वे जंगल में एक साधू की
तरह जीवनयापन कर सकें, खाने की भिक्षा मांगते हुए। यह 21 वी सदी के समाज द्वारा मान्य नहीं होगा। कुछ
देशो में जंगल के साधू जेल पहुँच जायेंगे बेघरबार घुम्माकरों या सीमाओं को लांघने वालों की तरह, तिस पर
वे भूखे ही पाए जायेंगे। एक विशेष प्रकार की पुनर्व्याख्या की आवश्यकता होगी आज के हिन्दूओ को यह छूट दिए जाने
के लिए कि वे बुधिमत्ता का इस्तेमाल जीवन के इस स्वाभाविक विकास के लिए कर सकें। शुरुआती बिंदु के रूप
में , आइये परंपरागत विवरणों का पुनरवलोकन करते हैं।


पहली अवस्था , या आश्रम , है ब्रह्मचर्य – विद्यार्थी जीवन- और जो इस आश्रम में होते हैं उन्हें ब्रह्मचारी कहा जाता है,
“वो जिनका आचरण दैवीय होता है।” यह सामान्यतया बारह वर्ष का समय होता है जो सात या आठ से 19 या 20 की
आयु तक का होता है। विद्यार्थी अपने गुरु के घर में रहते थे और शास्त्र , दर्शन, विज्ञानं और तर्क सीखते थे। उसे यह भी
सिखाया जाता था कि वैदिक अग्नि पद्धति का सञ्चालन कैसे किया जाये। ब्रह्मचारियों से यह भी उम्मीद की जाती थी कि
वे एक सख्त अनुशासन का पालन करेंगे जिसमे ब्रह्मचर्य , सत्य बोलना , वाणी में माधुर्य , शारीरिक तप जैसे कि ठन्डे पानी
में स्नान एवं रात को कम खाना शामिल है। अध्यापक की सेवा करना एवं घरेलु कामकाज में हाथ बंटाना भी उसके सीखने
का उतना ही भाग है जैसा कि औपचारिक सीखना।


दूसरी अवस्था एक परिवार चलने वाले का जीवन है, ग्रेह्स्थ आश्रम , और जो इस आश्रम में होते हैं ग्रेहेस्थी कहलाते हैं। अपने
पारिवारिक घर वापिस आने के बाद , विद्यार्थी से यह आशा की जाती है कि वो शादी करेगा और एक परिवार का भरण पोषण करेगा,
उचित साधनों द्वारा धनोपार्जन कर के अपने बीवी और बच्चों का ख्याल रखेगा, माता पिता को भी सहायक होगा और खुले ह्रदय से
दान भी करेगा। उसके धार्मिक कर्तव्यों में शास्त्रों का पढना और घर में प्रति दिन वैदिक अग्नि पद्धति का करना शामिल होंगे


तीसरी अवस्था वानप्रस्थ है – साधुत्व का जीवन- एवं जो इस आश्रम में हैं वे वानप्रस्थी कहलाते हैं , “जंगल में रहने वाले”. सामान्यतया
50 से 55 की उनकी आयु होती है , उनके बच्चों के बच्चे हो चुके होते हैं , शास्त्रों का कहना है , ग्रहस्थी को परिवार की जिम्मेदारियां
बच्चों को सौंप कर जंगल की तरफ प्रस्थान करना चाहिए। उसे अपनी पत्नी को भी साथ ले जाना चाहिए अगर वेह तप पूर्ण जीवन में
उसका साथ देना चाहती हो, या फिर अपने बेटों के पास छोड़ देना चाहिए। उसे प्रति दिन की अग्नि पद्धति को करना होगा , संयमित
जीवन जीना होगा और प्रभु के चिंतन की ओर समर्पित करना होगा , यह सब कुछ ताकि जीवन के अंतिम चरण के लिए अपने को
तैयार कर सके।


शास्त्रों में चौथी अवस्था को संन्यास परिभाषित किया गया है- त्यागी का जीवन – और जो इस आश्रम में हों उनको संन्यासी कहा जाता है। जब
जंगल में संसार को छोड़ कर गए व्यक्ति को अपनी सारी सांसारिक संपत्ति छोड़ देने की आतंरिक शक्ति महसूस हो और वेह एक घुमंतू साधू बन कर
घूम सके , वेह संन्यास को चुन लेगा , अपनी पत्नी को अपने बच्चों के सुपुर्द करके। इस अवस्था में वेह बराबर एक से दूसरी जगह घूमता रहेगा ,
भोजन की भिक्षा मांग के और अपने को जप की तरफ समर्पित करके, ध्यान, अपने इष्ट भगवान की पूजा और शास्त्रों का मनन करते हुए।


आइये अब हम आगे देखते हैं कि कैसे इन आश्रमों के विवरण को समकालीन समाज में प्रयोग करने के लिए उपयुक्त बनाया जाये, मेरे
गुरु, सिवाय सुब्रमुनियस्वामी मानते थे कि आधुनिक समय में हर आश्रम 24 वर्ष का समय होगा , जो पुरुष और महिला दोनों पर लागू
होगा : ब्रह्मचर्य होगा जीवन के पहले 25 वर्ष ; गृहस्थ होगा 24 से 48 वर्ष ; वानप्रस्थ होगा 48 से 72 ; एवं संन्यास 72 वर्ष से आगे।


ब्रह्मचर्य के लक्ष्य आज भी वाही होंगे, पर कुछ विवरण अब लागू नहीं होंगे, जैसे कि अपने शिक्षक के घर में रहना . तीव्रता पूर्ण सीखने पर अभी भी
प्रमुख ध्यान केन्द्रित करना होगा। आदर्श रूप से , वेह उस व्यवसाय का प्रशिक्षण प्राप्त करता है जो उसे एक व्यसक के रूप में करना होगा। धर्मं के स्तर पर , हिंदूइस्म की मूलभूत चीज़े सीखनी होंगी , साथ ही साथ मन्त्रों को याद करना होगा और घर के मंदिर में पूजा करनी होगी, एक अभ्यास जो कि आधुनिक समय में वैदिक अग्नि प्रक्रिया के बदले किया जा रहा है। विद्यार्थियों को स्व अनुशासन , ब्रह्मचर्य और अन्य सकारात्मक गुणों को सिखाना चाहिए।


ग्रेहस्थ आश्रम के विवरण आज के समय में भी सार्थक हैं। इसमें प्रमुख ध्यान विवाह पर है , बच्चों को पैदा करना एवं उनका पालन पोषण करना , अपने व्यवसाय द्वारा समाज की सेवा करना , धनोपार्जन करना , बुजुर्गों की सेवा करना और दानी होना। घर पर रोज़ पूजा करना, जिस्में आदर्श रूप में सारा परिवार शामिल होता है। आज ग्रहस्थी अपने बच्चों को हिंदूइस्म की शिक्षा देने वाला प्रमुख शिक्षक होता है , वेह कर्त्तव्य जो प्राचीन काल में गुरु निर्वाह किया करते थे। यह आश्रम संसार में व्यस्त होने का एक समय होता है जब परिवार और व्यवसाय को व्यक्ति को आगे बढ़ाना होता है।


दरअसल, वानप्रस्थ अवस्था को परिभाषित करने के लिए पुरानी परिभाषाओं के पुनर्विचार की आवश्यकता पड़ती है। 48 वर्ष की आयु में जंगल का निवासी बन जाना अधिकतर लोगों के लिए विकल्प नहीं है। इसकी बजाय , मेरे गुरु के अनुसार यह एक स्वाभाविक समय होगा युवा पीढ़ियों को मार्ग दिखाने का , एक सलाहकार एवं बुज़ुर्ग होने की नाते। ब्रह्मचारी एवेम ग्रहस्थी सक्रिय रूप से वानप्रस्थियों की सलाह ले सकते हैं और उनके सालों के अनुभव का फायदा उठा सकते हैं। उदहारण के तौर पर , इस आयु वर्ग के कई हिन्दू , सामुदायिक कार्यक्रमों द्वारा युवा वर्ग को दिशा दे सकते हैं , बच्चों को हिंदूइस्म पढ़ा सकते हैं , मंदिर की समितियों एवं ट्रस्टों के सदस्य के रूप में सेवा कर सकते हैं , या गैर मुनाफा कमाने वाले धर्मं निरपेक्ष संस्थानों में नेतृत्व का किरदार निभा सकते हैं। यह समय होता है कि वे समुदाय को वेह वापिस दे सकते हैं जो उन्होंने सीखा होता है , जबकि वे व्यवसायिक एवं सार्वजनिक जीवन से अपने को बाहर निकाल रहे होते हैं।


संन्यास आश्रम के मानदंड भी अब विस्तृत हो गए हैं। आधुनिक हिन्दुओं का एक छोटा सा प्रतिशत संन्यास के प्रतिरूप का अनुसरण सेवानिवृत्ति के पश्चात् करता है , संसार का त्याग करके और भारत के हजारों साधू संतों के बीच विचरण करके , जिनमे से काफी नें अपने 20 या 30 के बीच साधुत्व के तरफ रुख किया था। बुजुर्गों का यह संन्यास लेने का ढर्रा ठीक है अगर वे अकेले हैं, विधवाएं , या जिनकी पत्नियाँ गुज़र गयीं हों , और यह भारत के उन
भागों में कार्य करता है जहाँ समाज ऐसे पवित्र पुरुषों एवं महिलाओं को सम्मान देता है एवं सेवा करता है। परन्तु दुनिया के अधिकतर भागों में न तो यह माननीय है और न ही इसे समझा जाता है।


बहुत से हिन्दू जो 72 वर्ष की आयु के हो जाते हैं मुझसे पूछते हैं कि वे आने वाले वर्षों में क्या अलग से करें। मेरी हिदायत होती है कि वे सीधे से तरीके से जो भी धार्मिक अभ्यास कर रहे हो उन्हें और बढा दें। अगर आप रोज़ की पूजा 30 मिनट की करते हैं तो उसे बढा कर एक घंटे की कर देवें। अगर आप आधा घंटा ध्यान करते हैं उसे बढ़ा कर एक घंटा कर दें। अगर आप प्रति वर्ष दो हफ्ते की तीर्थ यात्रा पर जाते हैं तो उसे बाधा कर एक माह कर दें। एक बार जब यह बदलाव पक्की आदतों में तब्दील हो जायें, व्यक्ति स्वाभाविक रूप से धार्मिक अभ्यासों के लिए और अधिक समय समर्पित करेगा। 72 की आयु के बाद शारीरिक शक्तियां कम होनी शुरू हो जाती हैं , ऐसा समय होता है की अपने अन्दर के तरफ मुड़ें और सांसारिक भागीदारी से अपने को बाहर निकालें।


मेरे गुरु नें आधुनिक समय में तीसरे और चौथे आश्रमों के लिए यह सहायक विवरण दिया : “यह जीवन के बाद की अवस्थाओं में होता है की परिवार वाले भक्तों को अवसर प्राप्त होता है अपनी साधना को बढाने का और अपना अनुभव समाज को देने का, उनका ज्ञान एवं उनकी बुधिमत्ता जो पहले दो आश्रमों में उन्होंने अर्जित किया था। वानप्रस्थ आश्रम , आयु 48 से 72, जीवन की बहुत महत्वपूर्ण अवस्था होती है , क्योंकि यह वो समय होता है जब आप ब्रह्मचारी विद्यार्थियों एवं परिवारों में उत्कृष्टता की प्रेरणा दे सकते हैं, यह देखने के लिए जीवन वैसा चले जैसे उसे चलना चाहिए। बाद में , संन्यास आश्रम , जो 72 से शुरू होता है , समय होता है कि आप को जो कुछ बोध अब तक हुआ है उसका आनंद लें और उसकी गहराईयों में उतरें।”

Four dynamic stages:
1) As a student, gaining knowledge in math, science and other fields;
2) supporting and raising a family;
3) as a grandparent, semi-retired, devoting more time to religious pursuits and community programs while guiding one’s offspring and their children;
4) as the physical forces wane, withdrawing more and more into religious practices.

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1. Student, age 12–24
Brahmacharya Ashrama
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2. Householder, age 24–48
Grihastha Ashrama
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3. Senior Advisor, age 48–72
Vanaprastha Ashrama
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4. Religious Devotion, age 72 & onward
Sannyasa Ashrama