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डर का भगवान/प्रेम का भगवान
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सभी हिन्दू सम्प्रदायों में प्रेम पूजा का आधार है, इसकी अभिव्यक्ति भक्ति और योग के द्वारा व्यक्ति के चुने हुए देवता को समर्पित की जाती है
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द्वारा सतगुरु बोधिनाथा वेयलनस्वामी
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हाल ही में एक शिक्षण यात्रा पर मेरी मुलाकात रविन्द्रन से हुई जिसका लालन पालन भारत में हुआ था लेकिन वह बहुत वर्षों से पश्चिम में रह रहा था। वह खुले रूप से कुछ काफी समय से मन में चल रहे सवालों से जूझ रहा था जो उसके उन विश्वासों से जुड़े थे जब वह बड़ा हो रहा था। उसने यह बताया कि उसके क्षेत्र के हिन्दू इस बात से डरते थे कि अगर उन्होने नियमित रूप से और ठीक प्रकार से अपने गाँव के देवताओं को संतुष्ट नहीं किया , तो देवता और देवियाँ परेशान हो जाएंगे और इसके कारण उनके जीवन में नकारात्मक घटनाएँ घटेंगी.इसलिए , उन्हे व्यस्त रखा जाता था उन बहुल देवताओं का तुष्टीकरण करने में , जिनकी पीढ़ियों से पूजा की जा रही थी। इस प्रकार की पूजा के पीछे जो आधार है वो डर है, विशेष तौर से अगर हम अपने अनुष्ठान संबंधी दायित्वों में चूक करेंगे , हमें दंडित होना पड़ेगा या फिर हम किसी तरह से पीड़ा पाएंगे.
मेंने रविन्द्रन को आश्वासन दिया की हिंदूइज़्म के महान भगवान क्रोध, पीड़ा पहुंचाना, न्याय , प्रतिशोध या संकीर्णता की चेतना में नहीं रहते.वे प्रेम एवं प्रकाश के प्राणी हैं , हम पर अपना आशीर्वाद बरसाते हैं , बावजूद इसके कि हम असफल हों, कमजोर हों या हम में और कमियाँ हों। इस विश्वास की मूल भूत भावना को रखते हुए , हिंदूइज़्म एक आनंद पर आधारित धर्म है , जिसमे किसी को भगवान से कभी भी डरने की आवश्यकता नहीं है , इस बात के लिए कभी परेशान होने की आवश्यकता नहीं है कि अगर हम पूजा नहीं करेंगे तो भगवान आहत हो जाएंगे या हमें किसी तरह की सजा देंगे। पूजा उच्चतम मायनों में प्रेम का बाहर निकल कर बहना है। भगवान प्रेम हैं और कुछ और नहीं परंतु प्रेम हैं.
मेरे गुरुदेव , सिवाय सुब्रमुनियास्वामी नें पुष्टि की :” हिंदूइज़्म एक ऐसा आनंदमय धर्म है , जो कि पश्चिम के धर्मों में प्रचलित सभी मानसिक ऋण के भार से मुक्त है। यह भगवान के बदला लेने वाली सोच से मुक्त है। यह सदा होने वाली पीड़ा की सोच से मुक्त है। यह मूल पाप की सोच से मुक्त है। यह एक आध्यात्मिक रास्ते के होने वाली सोच, केवल एक रास्ता है , से मुक्त है।
रविन्द्रन नें मुझे अपने गाँव के विश्वास के बारे में और अधिक बताया। जब नकारात्मक घटनाएँ घटती हैं, जैसे कि बच्चे कि मौत , बाढ़ या अचानक बीमारी, बड़े लोग जरूरी अनुष्ठानों में हुई कमियों को ढूंढते हैं , यह मानते हुए कि देवता उनसे हुई पूजा के किसी पहलू की कमी के लिए दंडित कर रहे हैं। उसने आशा की कि भगवानों कि प्रकृति कि बेहतर समझ से ऐसे अंधविश्वासों पर काबू करने में मदद मिलेगी।
हिन्दू दर्शन यह सिखाता है कि हमारे जीवन में जो घटता है , वह चाहे सकारात्मक हो या नकारात्मक , वो हमारे पूर्व जन्म के किए गए कार्यों का परिणाम होता है। एक चिंताजनक स्थिति स्वयं के द्वारा पैदा किया गया दुर्भाग्य है और भगवान द्वारा दिया गया दंड नहीं है। जीवन स्वयं, जो द्वंद के दायरे में घट रहा है, प्राकृतिक शक्तियों के खेल का एक मैदान है , एक कक्षा है शरीर को धारण किए हुए आत्माओं की जो आनंद और दुख का , उत्साह और अवसाद , सफलता और विफलता, स्वास्थ्य और बीमारी , अच्छे और बुरे समय का अनुभव करते हैं.वे आध्यात्मिक प्राणी जो चेतना के गहरे स्तरों में रहते हैं , शरीर में रहने वाली आत्माओं को संसार की यात्रा के दौरान सहायता देनें के लिए सदेव उपलब्ध रहते हैं। पुजा अनुष्ठान उन्हें संतुष्ट करने या उनके गुस्से को शांत करने हेतु नहीं किए जाते बल्कि उनके प्रति प्रेम व्यक्त करने एवं उनका आशीर्वाद और मार्गदर्शन लेने का आवाहन करने हेतु किए जाते हैं.
अनुष्ठान द्वारा तुष्टीकरण का एक शास्त्रीय उद्देश्य भी है , नकारात्मक ऊर्जाओं और नक्षत्रीय संस्थाओं से बचाया जाए जो सचमुच में शरीर में रहने वाली आत्माओं के जीवन को परेशान करती हैं। गुरुदेव नें सिखाया कि ऐसे दुष्ट प्राणियों से बचने का अच्छा तरीका है एक सकारात्मक आध्यात्मिक बल का निर्माण जो कि उच्च और अधिक शक्तिशाली उदार प्राणियों के आव्हान द्वारा प्राप्त किया जा सकता है – जो कि हिंदूइज़्म के भगवान हैं। नक्षत्रीय संस्थाएं वहाँ शक्ति विहीन होती हैं जहां सामंजस्य, स्वच्छता एवं भगवानों एवं देवताओं से करीबी एकात्मता होती है।
उसी यात्रा के दौरान एक किशोर लड़के नें, उत्सुकता पूर्वक झुकते हुए पूछा, ” क्या मंदिर में मुझे सभी देवताओं की पूजा करनी होगी या में केवल भगवान गणेश पर ध्यान केंद्रित कर सकता हूँ ? मैं यह पा रहा हूँ की केवल एक पर ध्यान केंद्रित करने से मैं उनके काफी करीब पहुँच रहा हूँ। मैं एक ऐसे संबंध बनाने की शुरुआत कर रहा हूँ जैसा मेरा किसी और देवता के साथ नहीं हुआ.”
मेंनै हाँ में जवाब दिया, क़ि एक देवता पर ध्यान केंद्रित करना ठीक है। दरअसल , ज्यादातर हिन्दू इसी ढर्रे के पीछे चलते हैं। हालांकि , यह उचित होगा कि जब हम मंदिर में हों तो सभी देवताओं को सम्मानित एवं स्वीकृत करें। मेंनै कहा, “जब किसी दूसरे देवता कि पूजा में शामिल हों , निष्ठा पूर्वक पूजा करें और गहरा सम्मान दिखाएँ , पर आपको उस देवता के उतने नजदीक जाने के प्रयास की जरूरत नहीं जितना के आप भगवान गणेश के हैं.”
संस्कृत में , जिस देवता को आप बहुत पवित्र रूप से ध्यान देते हैं उसे ईष्ट देवता , या दूसरे शब्दों में , “बहुत सँजोने वाले या चुनिंदा देवता ” कहते हैं। वैष्णव किसी भी दिव्य रूप को चुन सकते हैं : विष्णु , बालाजी, कृष्ण, राधा, राम , लक्ष्मी, हनुमान एवं नरसिम्हा, साथ ही साथ, शालिग्राम [एक काले रंग का जीवाश्म जो पवित्र नदी गण्डकी में पाया जाता है ]। स्मार्टस परंपरागत रूप से अपने इष्ट को छह देवताओं में से चुनते हैं : शिव , शक्ति, विष्णु, सूर्य, गणेश और कुमार [या फिर इनके किसी भी परंपरागत रूप को]। शाक्त जो इश्वर की पूजा शक्ति देवी के रूप में करते हैं , उसके कई रूपों पर ध्यान केंद्रित कर सकते हैं , रुद्र काली से ले कर सौम्य पार्वती या अंबिका । शैव अपनी भक्ति को मुख्यता शिव की तरफ केंद्रित करते हैं, जिसका कि शिवलिंग द्वारा प्रतिनिधित्व किया जाता है , जिनमे हैं नटराज एवं अर्ध नारीश्वर। बहुत से शैव भगवान कर्तिकेय , जिन्हें मुरूगन या स्कन्द के नाम से भी जाना जाता है को अपने इष्ट देवता के रूप में चुनते हैं। मेरे गुरुदेव जो कि एक कट्टर शैव थे, उन्होने हमें सिखाया शिव की पूजा सर्वोच्च भगवान के रूप में करने के लिए, जबकि पूजा की शुरुआत भगवान गणेश की पूजा से की जाय जो कि ” भौतिक चेतना के स्तर पर , सबसे आसानी से संपर्क किए सकने वाले हैं और रोज़मर्रा कि हमारी जिंदगी और उसकी चिंताओं में में हमारी सहायता करने में सबसे अधिक सक्षम हैं.”
दोस्तों के लिए एक सादृश्य उपयोगी है। किशोरों के कई दोस्त होते हैं , किन्तु ऐसा सामान्यतया होता है एक सर्वोत्तम दोस्त होता है जिससे हम अपने जीवन की अंतरंग एवं व्यक्तिगत जानकारी को सांझा करते हैं। एक इष्ट देवता का होना इसके जैसा ही है , और इश्वर के प्रति हमारी भावना वैसी ही होनी चाहिए जैसी हमारे सबसे प्रिय मित्र के प्रति होती है। पूरी तरह से एकात्मता पूर्ण ध्यान केंद्रित करने से हम देवता के करीबतम खींचे चले जाते हैं.
एक अन्य दृष्टिकोण से अगर हम देवता के दयालु स्वभाव को समझने का प्रयास करें और ऐसा करते हुए मन में बसे पुराने भय को निकाल दें , तो हमें भगवान या देवी को एक माता पिता के रूप में और स्वयं को एक बच्चे के रूप में देखना होगा। सच्चे मायने में तो देवता एक सम्पूर्ण माता पिता के समान हैं , क्योंकि चाहे हम कुछ भी करें , देवी या देवता हमें सदेव आशीर्वाद और प्रेम भेजते हैं। जब हम गलती करते हैं वे कभी हम से नाराज़ नहीं होते एवं हमें कभी दंडित नहीं करते। देवता का प्रेम उत्तम प्रेम है , जो हर समय मौजूद रेहता है , सभी हालत में, सभी आत्माओं के लिए। देवता के साथ निकटता बढ़ाने से हम अंततः उसके उत्तम प्रेम को जान पाते हैं और उस उत्तम प्रेम का आभास कर पाते हैं। तिरुमंतिरम इस विचार कि पुष्टि करता है : अज्ञानी व्यक्ति मूर्खतापूर्वक कहता है कि प्रेम और शिव दो हैं , पर उसको पता नहीं है कि प्रेम स्वयं ही शिव है। जब व्यक्ति को यह पता लग जाता है कि प्रेम और शिव एक ही हैं , तब शिव सदेव प्रेम के जैसे ही रहते हैं.”
एक अन्य दृष्टिकोण से अगर हम देवता के दयालु स्वभाव को समझने का प्रयास करें और ऐसा करते हुए मन में बसे पुराने भय को निकाल दें , तो हमें भगवान या देवी को एक माता पिता के रूप में और स्वयं को एक बच्चे के रूप में देखना होगा। सच्चे मायने में तो देवता एक सम्पूर्ण माता पिता के समान हैं , क्योंकि चाहे हम कुछ भी करें , देवी या देवता हमें सदेव आशीर्वाद और प्रेम भेजते हैं। जब हम गलती करते हैं वे कभी हम से नाराज़ नहीं होते एवं हमें कभी दंडित नहीं करते। देवता का प्रेम उत्तम प्रेम है , जो हर समय मौजूद रेहता है , सभी हालत में, सभी आत्माओं के लिए। देवता के साथ निकटता बढ़ाने से हम अंततः उसके उत्तम प्रेम को जान पाते हैं और उस उत्तम प्रेम का आभास कर पाते हैं। तिरुमंतिरम इस विचार कि पुष्टि करता है : अज्ञानी व्यक्ति मूर्खतापूर्वक कहता है कि प्रेम और शिव दो हैं , पर उसको पता नहीं है कि प्रेम स्वयं ही शिव है। जब व्यक्ति को यह पता लग जाता है कि प्रेम और शिव एक ही हैं , तब शिव सदेव प्रेम के जैसे ही रहते हैं.”
– श्रवण : पवित्र ग्रंथों और भगवान की कहानियों को सुनना
– कीर्तन : भक्ति पूर्णा स्त्रोत एवं भजन गाना
– स्मरण : परमात्मा की उपस्थिति और नाम को याद करना। इसमे मंत्र जाप शामिल है
– पद-सेवा : पवित्र चरणों की सेवा, जिसमें मानवता की सेवा शामिल है
– अर्चना : मंदिर के अनुष्ठान एवं पुजा में भाग लेना या अपने घर के मंदिर में पूजा करना
– वंदना : देवता को दंडवत प्रणाम करना
– आत्म-निवेदन : सम्पूर्ण आत्म समर्पण
भक्ति योग से उन गुणों का विकास होता है जिनसे भगवान से मिलन संभव है, यह गुण हैं प्रेम, निस्स्वार्थता और पवित्रता , जो अपने को मिटाने और भगवान के प्रति पूर्ण समर्पण की ओर ले जाते हैं। यह जो विचार है जिसमे समर्पण के आवश्यकता है , प्रापत्ति, जिससे सभी संप्रदायों के लोग एक में विलय हो जाते हैं। हम यह जानते हैं कि हमें प्रापत्ति मिल गयी है जब हम बिना कुछ किए समझते हैं कि सब कुछ जो घटता है , भगवान कि कृपा से होता है न कि हमारे कार्य करने से। इस तरह कि पूजा में डर का कोई स्थान नहीं होता।
एक नवयुवक को लिखे गए पत्र में हमारे परमगुरु , योगस्वामी [1872 – 1964] नें एकात्मता के परिपेक्ष को न केवल भगवान बल्कि सभी चीजों के संदर्भ में लागू करने के लिए बताया। ” में तुम्हारे साथ हूँ और तुम मेरे साथ हो। में तुम हूँ। तुम मैं हो। डरने की क्या बात है ? देखो ! में आपके रूप में मौजूद हूँ। तो आपको क्या करना चाहिए ? आपको प्रेम करना चाहिए। किसको ? सबको। और स्पष्ट रूप से कहें तो , तुम्हारी स्वयं की प्रकृति ही प्रेम है। न केवल तुममें परंतु प्रेम सबमें व्याप्त है। पर “सब” केवल आपके अकेले के लिए मौजूद नहीं है। सब तुम ही हो !”